20090128

धान के कटोरे में बीड़ी

पंद्रह साल पहले जब मैं पहली बार शादी के बाद कांकेर जिले में मेरी पत्‍नी सुभद्रा के गाँव जेपरा गया था तो मेरा स्‍वागत बीड़ी, तेंदु पत्‍ते और तम्‍बाकू से भरे एक सूपड़े से हुआ था. यह इसलिए कि सुभद्रा के पुश्‍तैनी घर में घुसते ही बरामदे में उसकी बीड़ी बनाती हुई भाभी हमें देखकर उस सूपड़े को हाथ में लेकर स्‍वागत के लिए उठी थी.

वह वर्षा ऋतु थी जो कि धान की खेती करने वालों के लिए बहुत व्‍यस्‍त समय है. इसलिए मुझे आश्‍चर्य हुआ था कि सुभद्रा की भाभी खेत में काम करने के बजाय घर में बैठ कर चंचल उंगलियों से बीड़ी बना रही थी. उस समय बरसात के दिनों में जेपरा तक कोई मोटर वाहन नहीं चलता था क्‍योंकि बीच में महानदी पड़ती थी एवं उस पर कोई पुल नहीं था. इसलिए हम दोनों हमारे बैगों को सर पर रखकर पैदल ही १२ किलोमीटर चलकर एवं महानदी को नाव से पार कर जेपरा पंहुचे थे. फलस्‍वरूप मैंने तुरंत, मेरे हिसाब से बेमौसम, बीड़ी बनाने के इस कवायद के पीछे के रहस्‍य को जानने की कोशिश नहीं की थी.

पर कुछ दिन बीतने के बाद मैंने भाभी को पूछ ही डाला कि खुद के खेत होते हुए भी वह उस में काम क्‍यों नहीं कर रही है. जो जवाब हमें मिला उसने छत्‍तीसगढ़ के छोटे एवं सीमांत किसानों की दर्दनाक हकीकत को उज़ागर कर दिया. एक हेक्‍टेयर खेत के मालिक मेरे साले ने उस खेत को सालाना मुनाफे पर किसी और किसान को दे दिया था. इतने छोटे एक फसली खेत के लिए बैल की जोड़ी एवं अन्‍य कृषि उपकरण रखने का कोई अर्थ नहीं होता है. और किराये पर बैल जोड़ी लेकर मजदूरों से काम करवाने से जो उत्‍पादन होता है, उससे ज्‍यादा खेत को मुनाफे में देकर मिल जाता है. इसके अलावा घर में ही बैठकर बीड़ी बनाकर अतिरिक्‍त कमाई भी हो जाती है जिसके लिए खेत के कीचड़ में गंदा नहीं होना पड़ता है.


छत्‍तीसगढ़ के करीब ६० प्रतशित कृषक परिवार दो हेक्‍टेयर से कम जमीन के मालिक हैं एवं यह भी ज्‍यादातर एक फसली हैं. फलस्‍वरूप इन सभी के सामने सुभद्रा के भाई के जैसे ही संकट है कि कृषि कार्य से पर्याप्‍त आमदनी नहीं हो पाती है. ऐसे में बड़ी संख्‍या में कृषक खेती बारी छोड़कर अन्‍य कृषकों को अपनी जमीन मुनाफे या भाग से दे देते हैं एवं खुद या तो पलायन कर जाते हैं और नहीं तो बीड़ी बनाकर जीवन यापन करते हैं. परंतु बीड़ी बनाने का काम ही क्‍यों और कुछ क्‍यों नहीं?

बीड़ी का एक प्रमुख कच्‍चा माल है तेंदु पत्ता. यह छत्‍तीसगढ़ के जंगलों में प्रभूत परिमाण में उपलब्‍ध है एवं ज्‍यादातर गरीब आदिवासियों के सस्‍ते श्रम से यह एकत्रित होता है. इन आदिवासियों के पास भी गर्मी के मौसम में तेंदु पत्‍ता एकत्रित करने के अलावा कोई दूसरा रोजगार नहीं होता है. इसलिए भूखे मरने के बजाए यह लोग बेहद सस्‍ती दरों पर यह काम करते हैं. यानी छत्‍तीसगढ़ के बीड़ी निर्माता कम्‍पनियों को तेंदु पत्‍ता संग्राहक एवं घर में बैठकर बीड़ी बनाने वाले दोनों ही बहुत कम कीमत में उपलब्‍ध हो जाते हैं एवं वह बीड़ी भी इसलिए भारत के अन्‍य बीड़ी निर्माता कम्‍पनियों की तुलना में कम कीमत में बेच सकते हैं. ऐसे में आश्‍चर्य नहीं कि छत्‍तीसगढ़ में बीड़ी उद्योग फलफूल रहा है एवं परिस्थितियां ऐसी हो गई हैं कि नए दामादों का स्‍वागत धान से नहीं बल्कि बीड़ी के अवयवों से भरे सूपड़ों से होता है.

छत्‍तीसगढ़ में किसानी की इस दुर्दशा के पीछे एक बहुत बड़ी अंतर्राष्‍ट्रीय साजिश है. अमरीकी बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के इशारों पर अंतर्राष्‍ट्रीय कृषि अनुसंधान केंद्रों ने रासायनिक खाद से पैदा होने वाले संकरित किस्‍म के चावलों को पूरे छत्‍तीसगढ़ में फैला दिया जिससे छत्‍तीसगढ़ की पारम्‍परिक कृषि ठप्‍प हो गई. इस पारम्‍परिक कृषि में कमी तकनीक की नहीं बल्कि पूंजी निवेश की थी क्‍योंकि साहूकारों के चंगुल में फंसे होने के कारण छोटे किसानों के पास अपनी खेतों को विकास कर उन्‍हें दो फसली बनाने हेतु संसाधन नहीं थे. परंतु भारत सरकार ने साहूकारों पर लगाम कसने और पारम्‍परिक कृषि को बढ़ावा देने के बजाय बहुराष्‍ट्रीय कम्‍पनियों के व्‍यापारिक हितों को ज्‍यादा तौल दिया क्‍योंकि इन हितों के साथ छत्‍तीसगढ़ के चावल और बीड़ी बेचने वाले व्‍यापारियों के हित भी जुड़े हुए थे. आम किसान अगर आर्थिक रूप से कमजोर एवं भूखा रहता है तो श्रम का मूल्‍य भी कम रहता है जिससे देशी से लेकर विदेशी सभी प्रकार के व्‍यापारियों को फायदा होता है.

छत्‍तीसगढ़ में कृषि केवल एक जीविकोपार्जन का माध्‍यम नहीं बल्कि एक सम्‍पूर्ण जीवनशैली थी जिसमें जमीन एवं पानी का संरक्षण भी शामिल था. इसीलिए ग्रामीण समुदाय एक दूसरे से हाथ मिलाकर तालाबों और खेतों की इतनी हिफाज़त से देखभाल करते थे. परंतु जब कृषि को व्‍यापार में बदल दिया गया एवं कृषक को श्रमिक में तो यह जीवनशैली भी ध्वस्‍त हो गई एवं ग्रामीण छत्‍तीसगढ़ में बीड़ी निर्माण का बोलबाला हो गया. वर्तमान में परिस्थितियां विकराल हैं एवं ग्रामीण छत्‍तीसगढि़यों का औसत आय देश में सबसे कम है एवं वे विश्‍व में सब से ज्‍यादा कुपोषितों में शुमार होते हैं.

छत्‍तीसगढ़ सरकार द्वारा इस संकट से जूझने के लिए गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करने वाले परिवारों को तीन रुपए प्रति किलो के हिसाब से 35 किलो चावल प्रति माह मुहैया कराया जा रहा है. परंतु यह एक अस्‍थायी एवं अपर्याप्‍त समाधान है. असली जरूरत यह है कि कृषि की बुनियाद को ही पुख्‍ता किया जाए ताकि छोटे किसान एक बार फिर खुशी के साथ खेती करने लगे और उसी से अपना गुजारा अच्‍छे ढंग से कर पाए.

इसके लिए अंग्रेजों के जमाने से चली आ रही व्‍यापारिक दुराग्रह से ग्रसित शासन एवं नियोजन प्रणालियों को बदलकर आम जनता को स्‍वावलम्‍बी जीवन यापन करने के पूर्वाग्रह से सुशोभित शासन एवं नियोजन प्रणालियों को अपनाना होगा. बीड़ी के बदले चावल के चीले का सेवन ज्‍यादा हो इस ओर ध्‍यान देना होगा. एक हेक्टेअर भूमि वाला किसान भी उसका परिवार अच्‍छे ढंग से चला पाए इसके लिए जो कदम जरूरी है उसे अपनाना होगा. यह कदम सभी को मालूम है– इमानदारी से ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना का भरपूर इस्‍तेमाल कर पारम्‍परिक कृषि एवं उससे जुड़ी विकेंद्रीकृत भू एवं जल प्रबंधन योजनाओं का क्रियान्‍वयन करना. परंतु इसे क्रियान्वित करने की इच्‍छाशक्ति लगता है जनता और शासकों में किसी में भी नहीं है और इसीलिए बीड़ी के कश लेकर ही लोग अपने दु:खों को भुलाने की कोशिश कर रहे हैं.
(रविवार.कॉम से साभार)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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