20090313

'जंगली' की जिद का जंगल

वन विभाग और विज्ञान दोनों का दावा था कि इतनी ऊंचाई पर हरियाली की बात सोचना ही अवैज्ञानिक किस्म की सोच है. कुछ वनस्पतियां यहां जरूर उग सकती हैं लेकिन जंगल जैसी बातें इतनी ऊंचाई पर संभव नहीं है. लेकिन जंगली ने वह कर दिखाया जो पूरा सरकारी महकमा मिलकर नहीं कर सका. और जो किया उसका प्रसाद आज अकेले जगत सिंह को नहीं मिल रहा है. हरियाली और संपन्नता का प्रसाद समाज के हर हिस्से तक पहुंच रहा है निशुल्क और साधिकार.

जगत सिंह ने गढ़वाल में इतने पेड़ लगाये कि लोगों ने आदर से उन्हें जंगली का संबोधन दे दिया. जगत सिंह चौधरी ‘जंगली’ नें साबित किया है कि यदि कोई व्यक्ति अपने मन में ठान ले तो वह बहुत से तथाकथित वैज्ञानिक बातों को भी झुठला सकता है. उत्तराखण्ड के गढ़वाल इलाके में रूद्रप्रयाग जिले के एक छोटे से गांव कोटमल्ला में रहने वाले जगत सिंह चौधरी अब अपने उपनाम ‘जंगली’ के नाम से ही ज्यादा जाने जाते हैं. जगत सिंह चौधरी का जन्म 6 अप्रैल 1954 को कोटमल्ला में हुआ था. तब यह गांव चमोली जिले के अंतर्गत आता था.अब यह रुद्रप्रयाग जिले में है. जंगली के परदादा साधु सिंह और दादा शेर सिंह प्रकृति प्रेमी थे.उनके दादा शेर सिंह अपने जमाने में जंगलों के प्रति अपने लगाव के लिये प्रसिद्ध थे जिसके लिये ब्रिटिश सरकार ने ‘वाकसिद्धि’ की उपाधि दी और पांच रुपये मासिक की पेंशन भी मुहैया करवायी. सन 1967 में जंगली सेना में भर्ती हो गये.शादी हुई,बच्चे हुए और जगत सिंह का जीवन भी आम लोगों की तरह चलने लगा. उनके जीवन में परिवर्तन आया 1974 में जब उनके पिता बहादुर सिंह की मृत्यु हुई.मरते समय उनके पिता ने उनसे कहा कि वह अपनी बंजर पड़ी जमीन को किसी ना किसी तरह से प्रयोग में लायें. उस जमीन में तब कुछ भी नहीं उगता था और उस इलाके में पानी की बहुत कमी थी.जगत सिंह ने पहले उस इलाके में प्राकृतिक वनस्पति उगायी ताकि किसी तरह पानी को रोका जा सके और भूमि के क्षरण को कम किया जा सके. जगत सिंह हर साल अपनी सालाना छुट्टी में अपनी जमीन में लगे रहते. उनकी मेहनत के परिणाम धीरे धीरे आने लगे. सन 1980 में जगत सिंह ने फौज की नौकरी छोड़ दी और वहां से मिले अधिकतर पैसे को उन्होने अपनी जमीन में लगा दिया. उनकी मेहनत का ही परिणाम था उस इलाके में एक भरा-पूरा जंग़ल बन गया,पानी के सोते फूट गये और उबड़-खाबड़ जमीन जिसे कोई देखता भी नहीं था, उसे एक जीवन्त जंगल बनाकर वह स्वयं जंगली बन गये.

इस जंगल को बनाने में जंगली ने जहां काफी मेहनत की वहीं उन्होने लीक से हटकर चलते हुए पुरानी मान्यताओं और तथाकथित वैज्ञानिक सोच को भी चुनौती दी. 4500 फुट की उंचाई में स्थित इस इलाके में माना जाता था कि यहां केवल कुछ ही वनस्पतियां उगायी जा सकती हैं. यहां तक कि वन विभाग का भी यही मानना था कि कुछ प्रजातियों को छोड़ इस इलाके में कुछ भी नहीं उगाया जा सकता.वन विभाग मानता है कि जहां चीड़ का जंगल हो वहां दूसरी किसी प्रजाति का फलना-फूलना संभव नहीं है.जगत सिंह ने मिश्रित वन की अवधारणा को जन्म दिया. उनका मानना है कि कि जंगल में सब कुछ उगाया जाना चाहिये जिससे चारे के लिये घास मिले, खाने के लिये फल मिलें, दवाइयों के लिये जड़ी बूटियां मिलें, नगदी कृषि फसलें अदरख, हल्दी, चाय पैदा हों और इमारतों के लिए तथा जलाने के लिये लकड़ी भी मिले. यह सब उन्होने अपने जंगल में,बिना कोई किताब पढ़े,बिना किसी प्रशिक्षण व मार्ग दर्शन के, सिर्फ अपनी मेहनत के बल पर कर भी दिखाया. उनके जंगल में आज बांज, चीड़, देवदार, बांस, सुरई, आंगू, तुन, खड़िक, अशोक, कपूर, भीमल, तिमिल, शीशम, काफल आदि एक साथ पैदा होते हैं. 56 से भी अधिक प्रजातियों के वृक्षों को उन्होने अपने जंगल में उगा कर दिखा दिया कि कभी कभी केवल किताबी ज्ञान व्यवहारिक ज्ञान के आगे बौना सिद्ध हो जाता है. उन्होने अपने जंगल में कई जड़ी बूटी जैसे कौतुकी, बेलादोन्ना, बज्रदंती आदि भी उगायी हैं. जबकि माना जाता है इस ऊंचाई में जड़ी बूटियों का पनपना नामुमकिन है.

‘जंगली’ के जंगल का परिणाम है कि उस इलाके में पानी के दो स्रोत फूट निकले हैं जिससे उस गांव के लोगों की पानी की समस्या कम हो गयी है.अपनी मिश्रित वन की अवधारणा स्पष्ट करते हुए ज़ंगली कहते हैं कि एक जंगल में सभी तरह के पेड़ होने चाहिये जैसे वो पेड़ जो जमीन को नमी प्रदान करते हैं जैसे बांज, काफल, अयार, बुरांस-ये जमीन की नमी को बरकरार रखते हैं और इनकी पत्तियां झड़ने पर खाद के रूप में वृक्षों को पोषित करती हैं. इसी तरह से फलों के वृक्ष होने चाहिये जो अपने जीवन काल में फल प्रदान करें और बाद में उनकी लकड़ी इमारतों के काम भी आ सके. इसी तरह से सबसे महत्वपूर्ण है कि पर्यावरण को स्वच्छ रखने के लिये चौड़ी पत्तियों वाले वृक्ष भी जंगल में हों. ओद्योगिक इकाइयों के लिये आप को कुछ वृक्ष लगाने चाहिये जैसे रामबांस , बांस , रिंगाल , केन आदि. उसी तरह से आपको चारे के लिये घास और लताओं को भी जंगल में लगाना चाहिये. ‘जंगली’ जैवीय विविधता के पक्षधर हैं.

पर्यावरण की बात करने वाले आज अधिकांश लोग वह हैं जिन्होने पर्यावरण को नजदीक से देखा भी नहीं है. आज आवश्यक है कि हम बड़ी बड़ी बातें करने के स्थान पर अपनी मेहनत लगन और दृढ़ संकल्प से वह कर दिखायें जो जगत सिंह ने किया है. आवश्यकता इस बात की भी है कि जगत सिंह जंगली की अवधारणा का विस्तार हो और पहाड़ और पर्यावरण को चलाने की योजनायें केवल कागजों में ही ना बने बल्कि उन को अमलीजामा भी पहनाया जाये. जो ‘जंगली’ ने कर दिखाया है उस मॉडल को उत्तराखंड और देश के अन्य क्षेत्रों में भी फैलाया जाय ताकि आने वाली पीढियां जंगल को केवल किताबों में ही ना देखें बल्कि उसे वास्तव में महसूस भी कर सके.

(काकेश कुमार)

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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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