20091130

बिस्मिल चतुर्थ खण्ड-2

परिणाम
ग्यारह वर्ष पर्यन्त यथाशक्‍ति प्राणपण से चेष्‍टा करने पर भी हम अपने उद्देश्य में कहां तक सफल हुए ? क्या लाभ हुआ ? इसका विचार करने से कुछ अधिक प्रयोजन सिद्ध न होगा, क्योंकि हमने लाभ हानि अथवा जय-पराजय के विचार से क्रान्तिकारी दल में योग नहीं दिया था । हमने जो कुछ किया वह अपना कर्त्तव्य समझकर किया । कर्त्तव्य-निर्णय में हमने कहां तक बुद्धिमत्ता से काम लिया, इसका विवेचन करना उचित जान पड़ता है । राजनैतिक दृष्‍टि से हमारे कार्यों का इतना ही मूल्य है कि कतिपय होनहार नवयुवकों के जीवन को कष्‍टमय बनाकर नीरस कर दिया, और उन्हीं में से कुछ ने व्यर्थ में जान गंवाई । कुछ धन भी खर्च किया । हिन्दू-शास्‍त्र के अनुसार किसी की अकाल मृत्यु नहीं होती, जिसका जिस विधि से जो काल होता है, वह उसकी विधि समय पर ही प्राण त्याग करता है । केवल निमित्त-मात्र कारण उपस्थित हो जाते हैं । लाखों भारतवासी महामारी, हैजा, ताऊन इत्यादि अनेक प्रकार के रोगों से मर जाते हैं । करोड़ों दुर्भिक्ष में अन्न बिना प्राण त्यागते हैं, तो उसका उत्तरदायित्व किस पर है ? रह गया धन का व्यय, सो इतना धन तो भले आदमियों के विवाहोत्सवों में व्यय हो जाता है । गण्यमान व्यक्‍तियों की तो विलासिता की सामग्री का मासिक व्यय इतना होगा, जितना कि हमने एक षड्यन्त्र के निर्माण में व्यय किया । हम लोगों को डाकू बताकर फांसी और काले पानी की सजाएं दी गई हैं । किन्तु हम समझते हैं कि वकील और डॉक्टर हमसे कहीं बड़े डाकू हैं । वकील-डॉक्टर दिन-दहाड़े बड़े बड़े तालुकेदारों की जायदादें लूट कर खा गए । वकीलों के चाटे हुए अवध के तालुकेदारों को ढूंढे रास्ता भी दिखाई नहीं देता और वकीलों की ऊंची अट्टालिकाएं उन पर खिलखिला कर हंस रही हैं । इसी प्रकार लखनऊ में डॉक्टरों के भी ऊंचे-ऊंचे महल बन गए । किन्तु राज्य में दिन के डाकुओं की प्रतिष्‍ठा है । अन्यथा रात के साधारण डाकुओं और दिन के इन डाकुओं (वकीलों और डॉक्टरों) में कोई भेद नहीं । दोनों अपने अपने मतलब के लिए बुद्धि की कुशलता से प्रजा का धन लूटते हैं ।
ऐतिहासिक दृष्‍टि से हम लोगों के कार्य का बहुत बड़ा मूल्य है । जिस प्रकार भी हो, यह तो मानना ही पड़ेगा कि गिरी हुई अवस्था में भी भारतवासी युवकों के हृदय में स्वाधीन होने के भाव विराजमान हैं । वे स्वतन्त्र होने की यथाशक्‍ति चेष्‍टा भी करते हैं । यदि परिस्थितियां अनुकूल होतीं तो यही इने-गिने नवयुवक अपने प्रयत्‍नों से संसार को चकित कर देते । उस समय भारतवासियों को भी फ्रांसीसियों की भांति कहने का सौभाग्य प्राप्‍त होता जो कि उस जाति के नवयुवकों ने फ्रांसीसी प्रजातन्‍त्र की स्थापना करते हुए कहा था - The monument so raised may serve as a lesson to the oppressors and an instance to the oppressed. अर्थात् स्वाधीनता का जो स्मारक निर्माण किया गया है वह अत्याचारियों के लिए शिक्षा का कार्य करे और अत्याचार पीड़ितों के लिए उदाहरण बने ।
गाजी मुस्तफा कमालपाशा जिस समय तुर्की से भागे थे उस समय केवल इक्कीस युवक उनके साथ थे । कोई साजो-सामान न था, मौत का वारण्ट पीछे-पीछे घूम रहा था । पर समय ने ऐसा पलटा खाया कि उसी कमाल ने अपने कमाल से संसार को आश्‍चर्यान्वित कर दिया । वही कातिल कमालपाशा टर्की का भाग्य निर्माता बन गया । महामना लेनिन को एक दिन शराब के पीपों में छिप कर भागना पड़ा था, नहीं तो मृत्यु में कुछ देर न थी । वही महात्मा लेनिन रूस के भाग्य विधाता बने । श्री शिवाजी डाकू और लुटेरे समझे जाते थे, पर समय आया जब कि हिन्दू जाति ने उन्हें अपना सिरमौर बनाया, गौर, ब्राह्मण-रक्षक छत्रपति शिवाजी बना दिया ! भारत सरकार को भी अपने स्वार्थ के लिए छत्रपति के स्मारक निर्माण कराने पड़े । क्लाइव एक उद्दण्ड विद्यार्थी था, जो अपने जीवन से निराश हो चुका था । समय के फेर ने उसी उद्दण्ड विद्यार्थी को अंग्रेज जाति का राज्य स्थापन कर्त्ता लार्ड क्लाइव बना दिया । श्री सुनयात सेन चीन के अराजकवादी पलातक (भागे हुए) थे । समय ने ही उसी पलातक को चीनी प्रजातन्त्र का सभापति बना दिया । सफलता ही मनुष्य के भाग्य का निर्माण करती है । असफल होने पर उसी को बर्बर डाकू, अराजक, राजद्रोही तथा हत्यारे के नामों से विभूषित किया जाता है । सफलता उन्हीं नामों को बदल कर दयालु, प्रजापालक, न्यायकारी, प्रजातन्त्रवादी तथा महात्मा बना देती है ।
भारतवर्ष के इतिहास में हमारे प्रयत्‍नों का उल्लेख करना ही पड़ेगा किन्तु इसमें भी कोई सन्देह नहीं है कि भारतवर्ष की राजनैतिक, धार्मिक तथा सामाजिक किसी प्रकार की परिस्थिति इस समय क्रान्तिकारी आन्दोलन के पक्ष में नहीं है । इसका कारण यही है कि भारतवासियों में शिक्षा का अभाव है । वे साधारण से साधारण सामाजिक उन्नति करने में भी असमर्थ हैं । फिर राजनैतिक क्रान्ति की बात कौन कहे ? राजनैतिक क्रान्ति के लिए सर्वप्रथम क्रान्तिकारियों का संगठन ऐसा होना चाहिए कि अनेक विघ्न तथा बाधाओं के उपस्थित होने पर भी संगठन में किसी प्रकार त्रुटि न आये । सब कार्य यथावत् चलते रहें । कार्यकर्त्ता इतने योग्य तथा पर्याप्‍त संख्या में होने चाहिएं कि एक की अनुपस्थिति में दूसरा स्थानपूर्ति के लिए सदा उद्यत रहे । भारतवर्ष में कई बार कितने ही षड्यन्त्रों का भण्डा फूट गया और सब किया कराया काम चौपट हो गया । जब क्रान्तिकारी दलों की यह अवस्था है तो फिर क्रान्ति के लिए उद्योग कौन करे ! देशवासी इतने शिक्षित हों कि वे वर्तमान सरकार की नीति को समझकर अपने हानि-लाभ को जानने में समर्थ हो सकें । वे यह भी पूर्णतया समझते हों कि वर्तमान सरकार को हटाना आवश्यक है या नहीं । साथ ही साथ उनमें इतनी बुद्धि भी होनी चाहिये कि किस रीति से सरकार को हटाया जा सकता है ? क्रान्तिकारी दल क्या है ? वह क्या करना चाहता है ? क्यों करना चाहता है ? इन सारी बातों को जनता की अधिक संख्या समझ सके, क्रान्तिकारियों के साथ जनता की पूर्ण सहानुभूति हो, तब कहीं क्रान्तिकारी दल को देश में पैर रखने का स्थान मिल सकता है । यह तो क्रान्तिकारी दल की स्थापना की प्रारम्भिक बातें हैं । रह गई क्रान्ति, सो वह तो बहुत दूर की बात है ।
क्रान्ति का नाम ही बड़ा भयंकर है । प्रत्येक प्रकार की क्रान्ति विपक्षियों को भयभीत कर देती है । जहां पर रात्रि होती है तो दिन का आगमन जान निशिचरों को दुःख होता है । ठंडे जलवायु में रहने वाले पशु-पक्षी गरमी के आने पर उस देश को भी त्याग देते हैं । फिर राजनैतिक क्रान्ति तो बड़ी भयावनी होती है । मनुष्य अभ्यासों का समूह है । अभ्यासों के अनुसार ही उसकी प्रकृति भी बन जाती है । उसके विपरीत जिस समय कोई बाधा उपस्थित होती है, तो उनको भय प्रतीत होता है । इसके अतिरिक्‍त प्रत्येक सरकार के सहायक अमीर और जमींदार होते हैं । ये लोग कभी नहीं चाहते कि उनके ऐशो आराम में किसी प्रकार की बाधा पड़े । इसलिए वे हमेशा क्रान्तिकारी आन्दोलन को नष्‍ट करने का प्रयत्‍न करते हैं । यदि किसी प्रकार दूसरे देशों की सहायता लेकर, समय पाकर क्रान्तिकारी दल क्रान्ति के उद्योगों में सफल हो जाये, देश में क्रान्ति हो जाए तो भी योग्य नेता न होने से अराजकता फैलकर व्यर्थ की नरहत्या होती है, और उस प्रयत्‍न में अनेकों सुयोग्य वीरों तथा विद्वानों का नाश हो जाता है । इसका ज्वलन्त उदाहरण सन् 1857 ई० का गदर है । यदि फ्रांस तथा अमरीका की भांति क्रान्ति द्वारा राजतन्त्र को पलट कर प्रजातंत्र स्थापित भी कर लिया जाए तो बड़े-बड़े धनी पुरुष अपने धन, बल से सब प्रकार के अधिकारियों को दबा बैठते हैं । कार्यकारिणी समितियों में बड़े-बड़े अधिकार धनियों को प्राप्‍त हो जाते हैं । देश के शासन में धनियों का मत ही उच्च आदर पाता है । धन बल से देश के समाचार पत्रों, कल कारखानों तथा खानों पर उनका ही अधिकार हो जाता है । मजबूरन जनता की अधिक संख्या धनिकों का समर्थन करने को बाध्य हो जाती है । जो दिमाग वाले होते हैं, वे भी समय पाकर बुद्दिबल से जनता की खरी कमाई से प्राप्‍त किए अधिकारों को हड़प कर बैठते हैं । स्वार्थ के वशीभूत होकर वे श्रमजीवियों तथा कृषकों को उन्नति का अवसर नहीं देते । अन्त में ये लोग भी धनिकों के पक्षपाती होकर राजतन्त्र के स्थान में धनिकतन्‍त्र की ही स्थापना करते हैं । रूसी क्रान्ति के पश्‍चात् यही हुआ था । रूस के क्रान्तिकारी इस बात को पहले से ही जानते थे । अतःएव उन्होंने राज्यसत्ता के विरुद्ध युद्ध करके राजतन्त्र की समाप्‍ति की । इसके बाद जैसे ही धनी तथा बुद्धिजीवियों ने रोड़ा अटकाना चाहा कि उसी समय उनसे भी युद्ध करके उन्होंने वास्तविक प्रजातन्त्र की स्थापना की ।
अब विचारने की बात यह है कि भारतवर्ष में क्रान्तिकारी आन्दोलन के समर्थक कौन-कौन से साधन मौजूद हैं ? पूर्व पृष्‍ठों में मैंने अपने अनुभवों का उल्लेख करके दिखला दिया है कि समिति के सदस्यों की उदर-पूर्ति तक के लिए कितना कष्‍ट उठाना पड़ा । प्राणपण से चेष्‍टा करने पर भी असहयोग आन्दोलन के पश्‍चात् कुछ थोड़े से ही गिने चुने युवक युक्‍तप्रान्त में ऐसे मिल सके, जो क्रान्तिकारी आन्दोलन का समर्थन करके सहायता देने को उद्यत हुए । इन गिने-चुने व्यक्‍तियों में भी हार्दिक सहानुभूति रखने वाले, अपनी जान पर खेल जाने वाले कितने थे, उसका कहना ही क्या है ! कैसे बड़ी-बड़ी आशाएं बांधकर इन व्यक्‍तियों को क्रान्तिकारी समिति का सदस्य बनाया गया था, और इस अवस्था में, जब कि असहयोगियों ने सरकार की ओर से घृणा उत्पन्न कराने में कोई कसर न छोड़ी थी, खुले रूप में राजद्रोही बातों का पूर्ण प्रचार किया गया था । इस पर भी बोलशेविक सहायता की आशाएं बंधा बंधाकर तथा क्रान्तिकारियों के ऊँचे-ऊँचे आदर्शों तथा बलिदानों का उदाहरण दे देकर प्रोत्साहन दिया जाता था । नवयुवकों के हृदय में क्रान्तिकारियों के प्रति बड़ा प्रेम तथा श्रद्धा होती है । उनकी अस्‍त्र-शस्‍त्र रखने की स्वाभाविक इच्छा तथा रिवाल्वर या पिस्तौल से प्राकृतिक प्रेम उन्हें क्रान्तिकारी दल से सहानुभूति उत्पन्न करा देता है । मैंने अपने क्रान्तिकारी जीवन में एक भी युवक ऐसा न देखा, जो एक रिवाल्वर या पिस्तौल अपने पास रखने की इच्छा न रखता हो । जिस समय उन्हें रिवाल्वर के दर्शन होते, वे समझते कि ईष्‍टदेव के दर्शन प्राप्‍त हुए, आधा जीवन सफल हो गया ! उसी समय से वे समझते हैं कि क्रान्तिकारी दल के पास इस प्रकार के सहस्रों अस्‍त्र होंगे, तभी तो इतनी बड़ी सरकार से युद्ध करने का प्रयत्‍न कर रहे हैं ! सोचते हैं कि धन की भी कोई कमी न होगी ! अब क्या, अब समिति के व्यय से देश-भ्रमण का अवसर भी प्राप्‍त होगा, बड़े-बड़े त्यागी महात्माओं के दर्शन होंगे, सरकारी गुप्‍तचर विभाग का भी हाल मालूम हो सकेगा, सरकार द्वारा जब्त किताबें कुछ तो पहले ही पढ़ा दी जाती हैं, रही सही की भी आशा रहती है कि बड़ा उच्च साहित्य देखने को मिलेगा, जो यों कभी प्राप्‍त नहीं हो सकता । साथ ही साथ ख्याल होता है कि क्रान्तिकारियों ने देश के राजा महाराजाओं को तो अपने पक्ष में कर ही लिया होगा ! अब क्या, थोड़े दिन की ही कसर है, लौटा दिया सरकार का राज्य ! बम बनाना सीख ही जाएंगे ! अमर बूटी प्राप्‍त हो जाएगी, इत्यादि । परन्तु जैसे ही एक युवक क्रान्तिकारी दल का सदस्य बनकर हार्दिक प्रेम से समिति के कार्यों में योग देता है, थोड़े दिनों में ही उसे विशेष सदस्य होने के अधिकार प्राप्‍त होते हैं, वह ऐक्टिव (कार्यशील) मेंम्बर बनता है, उसे संस्था का कुछ असली भेद मालूम होता है, तब समझ में आता है कि कैसे भीषण कार्य में उसने हाथ डाला है । फिर तो वही दशा हो जाती है जो 'नकटा पंथ' के सदस्यों की थी । जब चारों ओर से असफलता तथा अविश्‍वास की घटाएं दिखाई देती हैं, तब यही विचार होता है कि ऐसे दुर्गम पथ में ये परिणाम तो होते ही हैं । दूसरे देश के क्रानिकारियों के मार्ग में भी ऐसी ही बाधाएं उपस्थित हुई होंगी । वीर वही कहलाता है जो अपने लक्ष्य को नहीं छोड़ता, इसी प्रकार की बातों से मन को शान्त किया जाता है । भारत के जनसाधारण की तो कोई बात ही नहीं । अधिकांश शिक्षित समुदाय भी यह नहीं जानता कि क्रान्तिकारी दल क्या चीज है, फिर उनसे सहानुभूति कौन रखे ? बिना देशवासियों की सहानुभूति के अथवा बिना जनता की आवाज के सरकार भी किसी बात की कुछ चिन्ता नहीं करती । दो-चार पढ़े लिखे एक दो अंग्रेजी अखबार में दबे हुए शब्दों में यदि दो एक लेख लिख दें तो वे अरण्यरोदन के समान निष्‍फल सिद्ध होते हैं । उनकी ध्वनि व्यर्थ में ही आकाश में विलीन हो जाती है । तमाम बातों को देखकर अब तो मैं इस निर्णय पर पहुंचा हूं कि अच्छा हुआ था जो मैं गिरफ्तार हो गया और भागा नहीं, भागने की मुझे सुविधाएं थीं । गिरफ्तारी से पहले ही मुझे अपनी गिरफ्तारी का पूरा पता चल गया था । गिरफ्तारी के पूर्व भी यदि इच्छा करता तो पुलिस वालों को मेरी हवा न मिलती, किन्तु मुझे तो अपने शक्ति की परीक्षा करनी थी । गिरफ्तारी के बाद सड़क पर आध घण्टे तक बिना किसी बंधन के खुला हुआ बैठा था । केवल एक सिपाही निगरानी के लिए पास बैठा हुआ था, जो रात भर का जागा था । सब पुलिस अफसर भी रात भर के जगे हुए थे, क्योंकि गिरफ्तारियों में लगे रहे थे । सब आराम करने चले गए थे । निगरानी वाला सिपाही भी घोर निद्रा में सो गया ! दफ्तर में केवल एक मुन्शी लिखा पढ़ी कर रहे थे । यह भी श्रीयुत रोशनसिंह अभियुक्‍त के फूफीजात भाई थे । यदि मैं चाहता तो धीरे से उठकर चल देता । पर मैंने विचारा कि मुन्शी जी महाशय बुरे फंसेंगे । मैंने मुंशी जी को बुलाकर कहा कि यदि भावी आपत्ति के लिए तैयारी हो तो मैं जाऊं । वे मुझे पहले से जानते थे । पैरों पड़ गए कि गिरफ्तार हो जाऊँगा, बाल बच्चे भूखे मर जायेंगे । मुझे दया आ गई । एक घण्टे बाद श्री अशफाक‍उल्ला खां के मकान की कारतूसी बन्दूक और कारतूसों से भरी हुई पेटी लाकर उन्हीं मुंशी जी के पास रख दी गई, और मैं पास ही कुर्सी पर खुला हुआ बैठा था । केवल एक सिपाही खाली हाथ पास में खड़ा था । इच्छा हुई कि बन्दूक उठाकर कारतूसों की पेटी को गले में डाल लूं, फिर कौन सामने आता है ! पर फिर सोचा कि मुंशी जी पर आपत्ति आएगी, विश्‍वासघात करना ठीक नहीं । उस समय खुफिया पुलिस के डिप्‍टी सुपरिण्टेण्डेंट सामने छत पर आये । उन्होंने देखा कि मेरे एक ओर कारतूस तथा बन्दूक पड़ी है, दूसरी ओर श्रीयुत प्रेमकृष्ण का माऊजर पिस्तौल तथा कारतूस रखे हैं, क्योंकि ये सब चीजें मुंशी जी के पास आकर जमा होती थीं और मैं बिना किसी बंधन के बीच में खुला हुआ बैठा हूं । डि० सु० को तुरन्त सन्देह हुआ, उन्होंने बन्दूक तथा पिस्तौल को वहां से हटवाकर मालखाने में बन्द करवाया । निश्‍चय किया कि अब भाग चलूं । पाखाने के बहाने से बाहर निकल गया । एक सिपाही कोतवाली से बाहर दूसरे स्थान में शौच के निमित्त लिवा लाया । दूसरे सिपाहियों ने उससे बहुत कहा कि रस्सी डाल लो । उसने कहा मुझे विश्‍वास है यह भागेंगे नहीं । पाखाना नितान्त निर्जन स्थान में था । मुझे पाखाना भेजकर वह सिपाही खड़ा होकर सामने कुश्ती देखने में मस्त है ! हाथ बढ़ाते ही दीवार के ऊपर और एक क्षण में बाहर हो जाता, फिर मुझे कौन पाता ? किन्तु तुरन्त विचार आया कि जिस सिपाही ने विश्‍वास करके तुम्हें इतनी स्वतन्‍त्रता दी, उसके साथ विश्‍वासघात करके भागकर उसको जेल में डालोगे ? क्या यह अच्छा होगा ? उसके बाल-बच्चे क्या कहेंगे ? इस भाव ने हृदय पर एक ठोकर लगाई । एक ठंडी सांस भरी, दीवार से उतरकर बाहर आया, सिपाही महोदय को साथ लेकर कोतवाली की हवालात में आकर बन्द हो गया ।
लखनऊ जेल में काकोरी के अभियुक्‍तों को बड़ी भारी आजादी थी । राय साहब पं० चम्पालाल जेलर की कृपा से हम कभी न समझ सके कि जेल में हैं या किसी रिश्तेदार के यहाँ मेहमानी कर रहे हैं । जैसे माता-पिता से छोटे-छोटे लड़के बात बात पर ऐंठ जाते । पं० चम्पालाल जी का ऐसा हृदय था कि वे हम लोगों से अपनी संतान से भी अधिक प्रेम करते थे । हम में से किसी को जरा सा कष्‍ट होता था, तो उन्हें बड़ा दुःख होता था । हमारे तनिक से कष्‍ट को भी वह स्वयं न देख सकते थे । और हम लोग ही क्यों, उनकी जेल में किसी कैदी या सिपाही, जमादार या मुन्शी - किसी को भी कोई कष्‍ट नहीं । सब बड़े प्रसन्न रहते थे । इसके अतिरिक्‍त मेरी दिनचर्या तथा नियमों का पालन देखकर पहले के सिपाही अपने गुरु से भी अधिक मेरा सम्मान करते थे । मैं यथानियम जाड़े, गर्मी तथा बरसात में प्रातःकाल तीन बजे से उठकर संध्यादि से निवृत हो नित्य हवन भी करता था । प्रत्‍येक पहरे का सिपाही देवता के समान मेरी पूजा करता था । यदि किसी के बाल बच्चे को कष्‍ट होता था तो वह हवन की भभूत ले जाता था ! कोई जंत्र मांगता था । उनके विश्‍वास के कारण उन्हें आराम भी होता था तथा उनकी श्रद्धा और भी बढ़ जाती थी । परिणाम स्वरूप जेल से निकल जाने का पूरा प्रबन्ध कर लिया । जिस समय चाहता चुपचाप निकल जाता । एक रात्रि को तैयार होकर उठ खड़ा हुआ । बैरक के नम्बरदार तो मेरे सहारे पहरा देते थे । जब जी में आता सोते, जब इच्छा होती बैठ जाते, क्योंकि वे जानते थे कि यदि सिपाही या जमादार सुपरिण्टेंडेंट जेल के सामने पेश करना चाहेंगे, तो मैं बचा लूंगा । सिपाही तो कोई चिन्ता ही न करते थे । चारों ओर शान्ति थी । केवल इतना प्रयत्‍न करना था कि लोहे की कटी हुई सलाखों को उठाकर बाहर हो जाऊं । चार महीने पहले से लोहे की सलाखें काट ली थीं । काटकर वे ऐसे ढंग से जमा दी थीं कि सलाखें धोई गई, रंगत लगवाई गई, तीसरे दिन झाड़ी जाती, आठवें दिन हथोड़े से ठोकी जातीं और जेल के अधिकारी नित्य प्रति सायंकाल घूमकर सब ओर दृष्‍टि डाल जाते थे, पर किसी को कोई पता न चला ! जैसे ही मैं जेल से भागने का विचार करके उठा था, ध्यान आया कि जिन पं० चम्पालाल की कृपा से सब प्रकार के आनन्द भोगने की स्वतन्त्रता जेल में प्राप्‍त हुई, उनके बुढ़ापे में जबकि थोड़ा सा समय ही उनकी पेंशन के लिए बाकी है, क्या उन्हीं के साथ विश्‍वासघात करके निकल भागूं ? सोचा जीवन भर किसी के साथ विश्‍वासघात न किया । अब भी विश्‍वासघात न करूंगा । उस समय मुझे यह भली भांति मालूम हो चुका था कि मुझे फांसी की सजा होगी, पर उपरोक्‍त बात सोचकर भागना स्थगित ही कर दिया । ये सब बातें चाहे प्रलाप ही क्यों न मालूम हों, किन्तु सब अक्षरशः सत्य हैं, सबके प्रमाण विद्यमान हैं ।
मैं इस समय इस परिणाम पर पहुंचा हूं कि यदि हम लोगों ने प्राणपण से जनता को शिक्षित बनाने में पूर्ण प्रयत्‍न किया होता, तो हमारा उद्योग क्रान्तिकारी आन्दोलन के कहीं अधिक लाभदायक होता, जिसका परिणाम स्थायी होता । अति उत्तम होगा यदि भारत की भावी सन्तान तथा नवयुवकवृन्द क्रान्तिकारी संगठन करने की अपेक्षा जनता की प्रवृत्ति को देश सेवा की ओर लगाने का प्रयत्‍न करें और श्रमजीवी तथा कृषकों का संगठन करके उनको जमींदारों तथा रईसों के अत्याचारों से बचाएं । भारतवर्ष के रईस तथा जमींदार सरकार के पक्षपाती हैं । मध्य श्रेणी के लोग किसी न किसी प्रकार इन्हीं तीनों के आश्रित हैं । कोई तो नौकरपेशा हैं और जो कोई व्यवसाय भी करते हैं, उन्हें भी इन्हीं के मुंह की ओर ताकना पड़ता है । रह गये श्रमजीवी तथा कृषक, सो उनको उदरपूर्ति के उद्योग से ही समय नहीं मिलता जो धर्म, समाज तथा राजनीति के ओर कुछ ध्यान दे सकें । मद्यपानादि दुर्व्यसनों के कारण उनका आचरण भी ठीक नहीं रह जाता । व्यभिचार, सन्तान वृद्धि, अल्पायु में मृत्यु तथा अनेक प्रकार के रोगों से जीवन भर उनकी मुक्‍ति नहीं हो सकती । कृषकों में उद्योग का तो नाम भी नहीं पाया जाता । यदि एक किसान को जमींदार की मजदूरी करने या हल चलाने की नौकरी करने पर ग्राम में आज से बीस वर्ष पूर्व दो आने रोज या चार रुपये मासिक मिलते थे, तो आज भी वही वेतन बंधा चला आ रहा है ! बीस वर्ष पूर्व वह अकेला था, अब उसकी स्‍त्री तथा चार सन्तान भी हैं पर उसी वेतन में उसे निर्वाह करना पड़ता है । उसे उसी पर सन्तोष करना पड़ता है । सारे दिन जेठ की लू तथा धूप में गन्ने के खेत में पाने देते उसको रतौन्धी आने लगती है । अंधेरा होते ही आंख से दिखाई नहीं देता, पर उसके बदले में आधा सेर सड़े हुए शीरे का शरबत या आधा सेर चना तथा छः पैसे रोज मजदूरी मिलती है, जिसमें ही उसे अपने परिवार का पेट पालना पड़ता है ।
जिनके हृदय में भारतवर्ष की सेवा के भाव उपस्थित हों या जो भारतभूमि को स्वतंत्र देखने या स्वाधीन बनाने की इच्छा रखता हो, उसे उचित है कि ग्रामीण संगठन करके कृषकों की दशा सुधारकर, उनके हृदय से भाग्य-निर्माता को हटाकर उद्योगी बनने की शिक्षा दे । कल कारखाने, रेलवे, जहाज तथा खानों में जहां कहीं श्रमजीवी हों, उनकी दशा को सुधारने के लिए श्रमजीवियों के संघ की स्थापना की जाए, ताकि उनको अपनी अवस्था का ज्ञान हो सके और कारखानों के मालिक मनमाने अत्याचार न कर सकें और अछूतों को, जिनकी संख्या इस देश में लगभग छः करोड़ है, पर्याप्‍त शिक्षा प्राप्‍त कराने का प्रबन्ध हो तथा उनको सामाजिक अधिकारों में समानता मिले । जिस देश में छः करोड़ मनुष्‍य अछूत समझे जाते हों, उस देश के वासियों को स्वाधीन बनने का अधिकार ही क्या है ? इसी के साथ ही साथ स्‍त्रियों की दशा भी इतनी सुधारी जाए कि वे अपने आपको मनुष्य जाति का अंग समझने लगें । वे पैर की जूती तथा घर की गुड़िया न समझी जाएं । इतने कार्य हो जाने के बाद जब भारत की जनता अधिकांश शिक्षित हो जाएगी, वे अपनी भलाई बुराई समझने के योग्य हो जाएंगे, उस समय प्रत्‍येक आन्दोलन जिसका शिक्षित जनता समर्थन करेगी, अवश्य सफल होगा । संसार की बड़ी से बड़ी शक्‍ति भी उसको दबाने में समर्थ न हो सकेगी । रूस में जब तक किसान संगठन नहीं हुआ, रूस सरकार की ओर से देश सेवकों पर मनमाने अत्याचार होते रहे । जिस समय से 'केथेराइन' ने ग्रामीण संगठन का कार्य अपने हाथ में लिया, स्थान-स्थान पर कृषक सुधारक संघों की स्थापना की, घूम घूम कर रूस के युवक तथा युवतियों ने जारशाही के विरुद्ध प्रचार आरम्भ किया, तभी से किसानों को अपनी वास्तविक अवस्था का ज्ञान होने लगा और वे अपने मित्र तथा शत्रु को समझने लगे, उसी समय से जारशाही की नींव हिलने लगी । श्रमजीवियों के संघ भी स्थापित हुए । रूस में हड़तालों का आरम्भ हुआ । उसी समय से जनता की प्रवृत्ति को देखकर मदान्धों के नेत्र खुल गए ।
भारतवर्ष में सबसे बड़ी कमी यही है कि इस देश के युवकों में शहरी जीवन व्यतीत करने की बान पड़ गई है । युवक-वृन्द साफ-सुथरे कपड़े पहनने, पक्की सड़कों पर चलने, मीठा, खट्टा तथा चटपटा भोजन करने, विदेशी सामग्री से सुसज्जित बाजारों में घूमने, मेज-कुर्सी पर बैठने तथा विलासिता में फंसे रहने के आदी हो गए हैं । ग्रामीण जीवन को वे नितान्त नीरस तथा शुष्क समझते हैं । उनकी समझ में ग्रामों में अर्धसभ्य या जंगली लोग निवास करते हैं । यदि कभी किसी अंग्रेजी स्कूल या कालेज में पढ़ने वाला विद्यार्थी किसी कार्यवश अपने किसी सम्बन्धी के यहां ग्राम में पहुंच जाता है, तो उसे वहां दो चार दिन काटना बड़ा कठिन हो जाता है । या तो कोई उपन्यास साथ ले जाता है, जिसे अलग बैठे पढ़ा करता है, या पड़े-पड़े सोया करता है ! किसी ग्रामवासी से बातचीत करने से उसका दिमाग थक जाता है, या उससे बातचीत करना वह अपनी शान के खिलाफ समझता है । ग्रामवासी जमींदार या रईस जो अपने लड़कों को अंग्रेजी पढ़ाते हैं, उनकी भी यही इच्छा रहती है कि जिस प्रकार हो सके उनके लड़के कोई सरकारी नौकरी पा जाएं । ग्रामीण बालक जिस समय शहर में पहुंचकर शहरी शान को देखते हैं, इतनी बुरी तरह से उन पर फैशन का भूत सवार हो जाता है कि उनके मुकाबले फैशन बनाने की चिन्ता किसी को भी नहीं ! थोड़े दिनों में उनके आचरण पर भी इसका प्रभाव पड़ता है और वे स्कूल के गन्दे लड़कों के हाथ में पड़कर बड़ी बुरी बुरी कुटेवों के घर बन जाते हैं । उनसे जीवन-पर्यन्त अपना ही सुधार नहीं हो पाता । फिर वे ग्रामवासियों का सुधार क्या खाक कर सकेंगे ?
असहयोग आन्दोलन में कार्यकर्त्ताओं की इतनी अधिक संख्या होने पर भी सबके सब शहर के प्लेटफार्मों पर लेक्चरबाजी करना ही अपना कर्त्तव्य समझते थे । ऐसे बहुत थोड़े कार्यकर्त्ता थे, जिन्होंने ग्रामों में कुछ कार्य किया । उनमें भी अधिकतर ऐसे थे, जो केवल हुल्लड़ कराने में ही देशोद्धार समझते थे ! परिणाम यह हुआ कि आन्दोलन में थोड़ी सी शिथिलता आते ही सब कार्य अस्त-व्यस्त हो गया । इसी कारण महामना देशबन्धु चितरंजनदास ने अन्तिम समय में ग्राम-संगठन ही अपने जीवन का ध्येय बनाया था । मेरे विचार से ग्राम संगठन की सबसे सुगम रीति यही हो सकती है कि युवकों में शहरी जीवन छोड़कर ग्रामीण जीवन के प्रति प्रीति उत्पन्न हो । जो युवक मिडिल, एण्ट्रेन्स, एफ० ए०, बी० ए० पास करने में हजारों रुपए नष्‍ट करके दस, पन्द्रह, बीस या तीस रुपए की नौकरी के लिए ठोकरें खाते फिरते हैं उन्हें नौकरी का आसरा छोड़कर कई उद्योग जैसे बढ़ईगिरी, लुहारगिरी, दर्जी का काम, धोबी का काम, जूते बनाना, कपड़ा बुनना, मकान बनाना, राजगिरी इत्यादि सीख लेना चाहिए । यदि जरा साफ सुथरे रहना हो तो वैद्यक सीखें । किसी ग्राम या कस्बे में जाकर काम शुरू करें । उपरोक्‍त कामों में कोई काम भी ऐसा नहीं है, जिसमें चार या पांच घण्टा मेहनत करके तीस रुपये मासिक की आय न हो जाए । ग्राम में लकड़ी या कपड़ों का मूल्य बहुत कम होता है और यदि किसी जमींदार की कृपा हो गई और एक सूखा हुआ वृक्ष कटवा दिया तो छः महीने के लिए ईंधन की छुट्टी हो गई । शुद्ध घी, दूध सस्ते दामों में मिल जाता है और स्वयं एक या दो गाय या भैंस पाल ली, तब तो आम के आम गुठलियों के दाम ही मिल गये । चारा सस्ता मिलता है । घी-दूध बाल बच्चे खाते ही हैं । कंडों का ईंधन होता है और यदि किसी की कृपा हो गई तो फसल पर एक या दो भुस की गाड़ी बिना मूल्य ही मिल जाती है । अधिकतर कामकाजियों को गांव में चारा, लकड़ी के लिए पैसा खर्च नहीं करना पड़ता । हजारों अच्छे-अच्छे ग्राम हैं जिनमें वैद्य, दर्जी, धोबी निवास ही नहीं करते । उन ग्रामों के लोगों को दस, बीस कोस दूर दौड़ना पड़ता है । वे इतने दुःखी होते हैं कि जिनका अनुमान करना कठिन है । विवाह आदि के अवसरों पर यथासमय कपड़े नहीं मिलते । काष्‍टादिक औषधियां बड़े बड़े कस्बों में नहीं मिलतीं । यदि मामूली अत्तार बनकर ही कस्बे में बैठ जाएं, और दो-चार किताबें देख कर ही औषध दिया करें तो भी तीस-चालीस रुपये मासिक की आय तो कहीं गई ही नहीं । इस प्रकार उदर निर्वाह तथा परिवार का प्रबन्ध हो जाता है । ग्रामों की अधिक जनसंख्या से परिचय हो जाता है । परिचय ही नहीं, जिसका एक समय जरूरत पर काम निकल गया, वह आभारी हो जाता है । उसकी आंखें नीची रहती हैं । आवश्यकता पड़ने पर वह तुरन्त सहायक होता है । ग्राम में ऐसा कौन पुरुष है जिसका लुहार, बढ़ई, धोबी, दर्जी, कुम्हार या वैद्य से काम नहीं पड़ता ? मेरा पूर्ण अनुभव है कि इन लोगों की भोले-भाले ग्रामवासी खुशामद करते रहते हैं ।
रोजाना काम पड़ते रहने से और सम्बन्ध होने से यदि थोड़ी सी चेष्‍टा की जाए और ग्रामवासियों को थोड़ा सा उपदेश देकर उनकी दशा सुधारने का यत्‍न किया जाए तो बड़ी जल्दी काम बने । अल्प समय में ही वे सच्चे स्वदेश भक्‍त खद्दरधारी बन जाएं । यदि उनमें एक दो शिक्षित हों तो उत्साहित करके उनके पास एक समाचार पत्र मंगाने का प्रबन्ध कर दिया जाए । देश की दशा का भी उन्हें कुछ ज्ञान होता रहे । इसी तरह सरल-सरल पुस्तकों की कथाएं सुनाकर उनमें से कुप्रथाओं को भी छुड़ाया जा सकता है । कभी कभी स्वयं रामायण या भागवत की कथा भी सुनाया करें । यदि नियमित रूप से भागवत की कथा कहें तो पर्याप्‍त धन भी चढ़ावे में आ सकता है, जिससे एक पुस्‍तकालय स्थापित कर दें । कथा कहने के अवसर पर बीच बीच में चाहे कितनी राजनीति का समावेश कर जाये, कोई खुफिया पुलिस का रिपोर्टर नहीं बैठा जो रिपोर्ट करे । वैसे यदि कोई खद्दरधारी ग्राम में उपदेश करना चाहे तो तुरन्त ही जमींदार पुलिस में खबर कर दे और यदि कस्वे के वैद्य, लड़के पढ़ाने वाले अथवा कथा कहने वाले पण्डित कोई बात कहें तो सब चुपचाप सुनकर उस पर अमल करने की कौशिश करते हैं और उन्हें कोई पूछता भी नहीं । इसी प्रकार अनेक सुविधाएं मिल सकती हैं जिनके सहारे ग्रामीणों की सामाजिक दशा सुधारी जा सकती है । रात्रि-पाठशालाएं खोलकर निर्धन तथा अछूत जातियों के बालकों को शिक्षा दे सकते हैं । श्रमजीवी संघ स्थापित करने में शहरी जीवन तो व्यतीत हो सकता है, किन्तु इसके लिए उनके साथ अधिक समय खर्च करना पड़ेगा । जिस समय वे अपने अपने काम से छुट्टी पाकर आराम करते हैं, उस समय उनके साथ वार्तालाप करके मनोहर उपदेशों द्वारा उनको उनकी दशा का दिग्दर्शन कराने का अवसर मिल सकता है । इन लोगों के पास वक्‍त बहुत कम होता है । इसलिए बेहतर यही होगा कि चित्ताकर्षण साधनों द्वारा किसी उपदेश करने की रीति से, जैसे लालटेन द्वारा तस्वीरें दिखाकर या किसी दूसरे उपाय से उनको एक स्थान पर एकत्रित किया जा सके, तथा रात्रि पाठशालाएं खोलकर उन्हें तथा उनके बच्चों को शिक्षा देने का भी प्रबन्ध किया जाए । जितने युवक उच्च शिक्षा प्राप्‍त करके व्यर्थ में धन व्यय करने की इच्छा रखते हैं, उनके लिए उचित है कि वे अधिक से अधिक अंग्रेजी के दसवें दर्जे तक की योग्यता प्राप्‍त कर किसी कला कौशल को सीखने का प्रयत्‍न करें और उस कला कौशल द्वारा ही अपना जीवन निर्वाह करें ।
जो धनी-मानी स्वदेश सेवार्थ बड़े-बड़े विद्यालयों तथा पाठशालाओं की स्थापना करते हैं, उनको चाहिए कि विद्यापीठों के साथ-साथ उद्योगपीठ, शिल्पविद्यालय तथा कलाकौशल भवनों की स्थापना भी करें । इन विद्यालयों के विद्यार्थियों को नेतागिरी के लोभ से बचाया जाए । विद्यार्थियों का जीवन सादा हो और विचार उच्च हों । इन्हीं विद्यालयों में एक एक उपदेशक विभाग भी हो, जिसमें विद्यार्थी प्रचार करने का ढंग सीख सकें । जिन युवकों के हृदय में स्वदेश सेवा के भाव हों, उन्हें कष्‍ट सहन करने की आदत डालकर सुसंगठित रूप से ऐसा कार्य करना चाहिए, जिसका परिणाम स्थायी हो । केथेराइन ने इसी प्रकार कार्य किया था । उदर-पूर्ति के निमित्त केथेराइन के अनुयायी ग्रामों में जाकर कपड़े सीते या जूते बनाते और रात्रि के समय किसानों को उपदेश देते थे । जिस समय मैंने केथेराइन की जीवनी (The Grandmother of the Russian Revolution) का अंग्रेजी भाषा में अध्ययन किया, मुझ पर भी उसका प्रभाव हुआ । मैंने तुरन्त उसकी जीवनी 'केथेराइन-८' नाम से हिन्दी में प्रकाशित कराई । मैं भी उसी प्रकार काम करना चाहता था, पर बीच में ही क्रान्तिकारी दल में फंस गया । मेरा तो अब यह दृढ़ निश्‍चय हो गया है कि अभी पचास वर्ष तक क्रान्तिकारी दल को भारतवर्ष में सफलता नहीं मिल सकती क्योंकि यहां की स्थिति उसके उपयुक्‍त नहीं । अतःएव क्रान्तिकारी दल का संगठन करके व्यर्थ में नवयुवकों के जीवन को नष्‍ट करना और शक्‍ति का दुरुपयोग करना आदि बड़ी भारी भूलें हैं । इससे लाभ के स्थान में हानि की संभावना बहुत अधिक है । नवयुवकों को मेरा अन्तिम सन्देश यही है कि वे रिवाल्वर या पिस्तौल को अपने पास रखने की इच्छा को त्याग कर सच्चे देश सेवक बनें । पूर्ण-स्वाधीनता उनका ध्येय हो और वे वास्तविक साम्यवादी बनने का प्रयत्‍न करते रहें । फल की इच्छा छोड़कर सच्चे प्रेम से कार्य करें, परमात्मा सदैव उनका भला ही करेगा ।
यदि देश-हित मरना पड़े मुझको सहस्रों बार भी
तो भी न मैं इस कष्‍ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी ।
हे ईश भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो ॥

अन्तिम समय की बात
आज 16 दिसम्बर 1927 ई० को निम्नलिखित पंक्‍तियों का उल्लेख कर रहा हूं, जबकि 19 दिसम्बर 1927 ई० सोमवार (पौष कृष्‍णा 11 सम्वत् 1984 वि०) को 6 बजे प्रातःकाल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्‍चित हो चुकी है । अतःएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी होगी । यह सर्वशक्‍तिमान प्रभु की लीला है । सब कार्य उसकी इच्छानुसार ही होते हैं । यह परमपिता परमात्मा के नियमों का परिणाम है कि किस प्रकार किसको शरीर त्यागना होता है । मृत्यु के सकल उपक्रम निमित्त मात्र हैं । जब तक कर्म क्षय नहीं होता, आत्मा को जन्म मरण के बन्धन में पड़ना ही होता है, यह शास्‍त्रों का निश्‍चय है । यद्यपि यह बात वह परब्रह्म ही जानता है कि किन कर्मों के परिणामस्वरूप कौन सा शरीर इस आत्मा को ग्रहण करना होगा किन्तु अपने लिए यह मेरा दृढ़ निश्‍चय है कि मैं उत्तम शरीर धारण कर नवीन शक्‍तियों सहित अति शीघ्र ही पुनः भारतवर्ष में ही किसी निकटवर्ती सम्बन्धी या इष्‍ट मित्र के गृह में जन्म ग्रहण करूंगा, क्योंकि मेरा जन्म-जन्मान्तर उद्देश्य रहेगा कि मनुष्य मात्र को सभी प्रकृति पदार्थों पर समानाधिकार प्राप्‍त हो । कोई किसी पर हकूमत न करे । सारे संसार में जनतन्त्र की स्थापना हो । वर्तमान समय में भारतवर्ष की अवस्था बड़ी शोचनीय है । अतःएव लगातार कई जन्म इसी देश में ग्रहण करने होंगे और जब तक कि भारतवर्ष के नर-नारी पूर्णतया सर्वरूपेण स्वतन्त्र न हो जाएं, परमात्मा से मेरी यह प्रार्थना होगी कि वह मुझे इसी देश में जन्म दे, ताकि उसकी पवित्र वाणी - 'वेद वाणी' का अनुपम घोष मनुष्य मात्र के कानों तक पहुंचाने में समर्थ हो सकूं । सम्भव है कि मैं मार्ग-निर्धारण में भूल करूं, पर इसमें मेरा कोई विशेष दोष नहीं, क्योंकि मैं भी तो अल्पज्ञ जीव मात्र ही हूं । भूल न करना केवल सर्वज्ञ से ही सम्भव है । हमें परिस्थितियों के अनुसार ही सब कार्य करने पड़े और करने होंगे । परमात्मा अगले जन्म से सुबुद्धि प्रदान करे ताकि मैं जिस मार्ग का अनुसरण करूं वह त्रुटि रहित ही हो ।
अब मैं उन बातों का उल्लेख कर देना उचित समझता हूं, जो काकोरी षड्यन्त्र के अभियुक्‍तों के सम्बन्ध में सेशन जज के फैसला सुनाने के पश्‍चात घटित हुई । 6 अप्रैल सन् 1927 ई० को सेशन जज ने फैसला सुनाया था । 7 जुलाई सन् 1927 ई० को अवध चीफ कोर्ट में अपील हुई । इसमें कुछ की सजाएं बढ़ीं और एकाध की कम भी हुईं । अपील होने की तारीख से पहले मैंने संयुक्‍त प्रान्त के गवर्नर की सेवा में एक मेमोरियल भेजा था, जिसमें प्रतिज्ञा की थी कि अब भविष्य में क्रान्तिकारी दल से कोई सम्बन्ध न रखूंगा । इस मेमोरियल का जिक्र मैंने अपनी अन्तिम दया-प्रार्थना पत्र में, जो मैंने चीफ कोर्ट के जजों को दिया था, कर दिया था । किन्तु चीफ कोर्ट के जजों ने मेरी किसी प्रकार की प्रार्थना स्वीकार न की । मैंने स्वयं ही जेल से अपने मुकदमे की बहस लिखकर भेजी छापी गई । जब यह बहस चीफ कोर्ट के जजों ने सुनी उन्हें बड़ा सन्देह हुआ कि बहस मेरी लिखी हुई न थी । इन तमाम बातों का नतीजा यह निकला कि चीफ कोर्ट अवध द्वारा मुझे महाभयंकर षड्यन्त्रकारी की पदवी दी गई । मेरे पश्‍चाताप पर जजों को विश्‍वास न हुआ और उन्होंने अपनी धारणा को इस प्रकार प्रकट किया कि यदि यह (रामप्रसाद) छूट गया तो फिर वही कार्य करेगा । बुद्धि की प्रखरता तथा समझ पर प्रकाश डालते हुए मुझे 'निर्दयी हत्यारे' के नाम से विभूषित किया गया । लेखनी उनके हाथ में थी, जो चाहे सो लिखते, किन्तु काकोरी षड्यन्त्र का चीफ कोर्ट का आद्योपान्त फैसला पढ़ने से भलीभांति विदित होता है कि मुझे मृत्युदण्ड किस ख्याल से दिया गया । यह निश्‍चय किया गया कि रामप्रसाद ने सेशन जज के विरुद्ध अपशब्द कहे हैं, खुफिया विभाग के कार्यकर्त्ताओं पर लांछन लगाये हैं अर्थात् अभियोग के समय जो अन्याय होता था, उसके विरुद्ध आवाज उठाई है, अतःएव रामप्रसाद सब से बड़ा गुस्ताख मुलजिम है । अब माफी चाहे वह किसी रूप में मांगे, नहीं दी जा सकती ।
चीफ कोर्ट से अपील खारिज हो जाने के बाद यथानियम प्रान्तीय गवर्नर तथा फिर वाइसराय के पास दया प्रार्थना की गई । रामप्रसाद 'बिस्मिल', राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, रोशनसिंह तथा अशफाक‌उल्ला खां के मृत्यु-दण्ड को बदलकर अन्य दूसरी सजा देने की सिफारिश करते हुए संयुक्‍त प्रान्त की कौंसिल के लगभग सभी निर्वाचित हुए मेम्बरों ने हस्ताक्षर करके निवेदन पत्र दिया । मेरे पिता ने ढ़ाई सौ रईस, आनरेरी मजिस्ट्रेट तथा जमींदारों के हस्ताक्षर से एक अलग प्रार्थना पत्र भेजा, किन्तु श्रीमान सर विलियम मेरिस की सरकार ने एक न सुनी ! उसी समय लेजिस्लेटिव असेम्बली तथा कौंसिल ऑफ स्टेट के 78 सदस्यों ने हस्ताक्षर करके वाइसराय के पास प्रार्थनापत्र भेजा कि काकोरी षड्यन्त्र के मृत्युदण्ड पाए हुओं को मृत्युदण्ड की सजा बदल कर दूसरी सजा कर दी जाए, क्योंकि दौरा जज ने सिफारिश की है कि यदि ये लोग पश्‍चाताप करें तो सरकार दण्ड कम दे । चारों अभियुक्‍तों ने पश्‍चाताप प्रकट कर दिया है । किन्तु वाइसराय महोदय ने भी एक न सुनी ।
इस विषय में माननीय पं० मदनमोहन मालवीय जी ने तथा असेम्बली के कुछ अन्य सदस्यों ने वाइसराय से मिलकर भी प्रयत्‍न किया था कि मृत्युदण्ड न दिया जाए । इतना होने पर सबको आशा थी कि वाइसराय महोदय अवश्यमेव मृत्युदण्ड की आज्ञा रद्द कर देंगे । इसी हालत में चुपचाप विजयदशमी से दो दिन पहले जेलों को तार भेज दिए गए कि दया नहीं होगी सब की फांसी की तारीख मुकर्रर हो गई । जब मुझे सुपरिण्टेण्डेंट जेल ने तार सुनाया, तो मैंने भी कह दिया था कि आप अपना काम कीजिए । किन्तु सुपरिण्टेण्डेंट जेल के अधिक कहने पर कि एक तार दया-प्रार्थना का सम्राट के पास भेज दो, क्योंकि यह उन्होंने एक नियम सा बना रखा है कि प्रत्येक फांसी के कैदी की ओर से जिस की भिक्षा की अर्जी वाइसराय के यहां खारिज हो जाती है, वह एक तार सम्राट के नाम से प्रान्तीय सरकार के पास अवश्य भेजते हैं । कोई दूसरा जेल सुपरिण्टेण्डेंट ऐसा नहीं करता । उपरोक्‍त तार लिखते समय मेरा कुछ विचार हुआ कि प्रिवी-कौंसिल इंग्लैण्ड में अपील की जाए । मैंने श्रीयुत मोहनलाल सक्सेना वकील लखनऊ को सूचना दी । बाहर किसी को वाइसराय द्वारा अपील खरिज करने की बात पर विश्‍वास भी न हुआ । जैसे तैसे करके श्रीयुत मोहनलाल द्वारा प्रिवीकौंसिल में अपील कराई गई । नतीजा तो पहले से मालूम था । वहां से भी अपील खारिज हुई । यह जानते हुए कि अंग्रेज सरकार कुछ भी न सुनेगी मैंने सरकार को प्रतिज्ञा-पत्र क्यों लिखा ? क्यों अपीलों पर अपीलें तथा दया-प्रार्थनाएं कीं ? इस प्रकार के प्रश्‍न उठ सकते हैं । समझ में सदैव यही आया कि राजनीति एक शतरंज के खेल के समान है । शतरंज के खेलने वाले भली भांति जानते हैं कि आवश्यकता होने पर किस प्रकार अपने मोहरे मरवा देने पड़ते हैं । बंगाल आर्डिनेन्स के कैदियों के छोड़ने या उन पर खुली अदालत में मुकदमा चलाने के प्रस्ताव जब असेम्बली में पेश किए, तो सरकार की ओर से बड़े जोरदार शब्दों में कहा गया कि सरकार के पास पूरा सबूत है । खुली अदालत में अभियोग चलने से गवाहों पर आपत्ति आ सकती है । यदि आर्डिनेन्स के कैदी लेखबद्ध प्रतिज्ञा-पत्र दाखिल कर दें कि वे भविष्य में क्रान्तिकारी आन्दोलन से कोई सम्बन्ध न रखेंगे, तो सरकार उन्हें रिहाई देने के विषय में विचार कर सकती है । बंगाल में दक्षिणेश्‍वर तथा शोभा बाजार बम केस आर्डिनेन्स के बाद चले । खुफिया विभाग के डिप्टी सुपरिण्टेण्डेंट के कत्ल का मुकदमा भी खुली अदालत में हुआ, और भी कुछ हथियारों के मुकदमे खुली अदलत में चलाये गए, किन्तु कोई एक भी दुर्घटना या हत्या की सूचना पुलिस न दे सकी । काकोरी षड्यन्त्र केस पूरे डेढ़ साल तक खुली अदालतों में चलता रहा । सबूत की ओर से लगभग तीन सौ गवाह पेश किये गए । कई मुखबिर तथा इकबाली खुले तौर से घूमते रहे, पर कहीं कोई दुर्घटना या किसी को धमकी देने की कोई सूचना पुलिस ने न दी । सरकार की इन बातों की पोल खोलने की गरज से मैंने लेखबद्ध बंधेज सरकार को दिया । सरकार के कथनानुसार जिस प्रकार बंगाल आर्डिनेन्स के कैदियों के सम्बन्ध में सरकार के पास पूरा सबूत था और सरकार उनमें से अनेकों को भयंकर षड्यन्त्रकारी दल का सदस्य तथा हत्याओं का जिम्मेदार समझती तथा कहती थी, तो इसी प्रकार काकोरी षड्यन्त्रकारियों के लेखबद्ध प्रतिज्ञा करने पर कोई गौर क्यों न किया ? बात यह है कि जबरा मारे रोने न देय । मुझे तो भली भांति मालूम था कि संयुक्‍त प्रान्त में जितने राजनैतिक अभियोग चलाये जाते हैं, उनके फैसले खुफिया पुलिस की इच्छानुसार लिखे जाते हैं । बरेली पुलिस कांस्टेबलों की हत्या के अभियोग में नितान्त निर्दोष नवयुवकों को फंसाया गया और सी० आई० डी० वालों ने अपनी डायरी दिखलाकर फैसला लिखाया । काकोरी षड्यन्त्र में भी अन्त में ऐसा ही हुआ । सरकार की सब चालों को जानते हुए भी मैंने सब कार्य उसकी लम्बी लम्बी बातों की पोल खोलने के लिए ही किये । काकोरी के मृत्युदण्ड पाये हुओं की दया प्रार्थना न स्वीकार करने का कोई विशेष कारण सरकार के पास नहीं । सरकार ने बंगाल आर्डिनेंस के कैदियों के सम्बन्ध में जो कुछ कहा था, सो काकोरी वालों ने किया । मृत्युदण्ड को रद्द कर देने से देश में किसी प्रकार की शान्ति भंग होने अथवा किसी विप्लव के हो जाने की संभावना न थी । विशेषतया तब जब कि देश भर के सब प्रकार के हिन्दू-मुस्लिम असेम्बली के सदस्यों ने इसकी सिफारिश की थी । षड्यन्त्रकारियों की इतनी बड़ी सिफारिश इससे पहले कभी नहीं हुई । किन्तु सरकार तो अपना पास सेधा रखना चाहती है । उसे अपने बल पर विश्‍वास है । सर विलियम मेरिस ने ही स्वयं शाहजहांपुर तथा इलाहाबाद के हिन्दु मुसलिम दंगों के अभियुक्‍तों के मृत्युदंड रद्द किये हैं, जिनको कि इलाहाबाद हाईकोर्ट से मृत्युदण्ड ही देना उचित समझा गया था और उन लोगों पर दिन दहाड़े हत्या करने के सीधे सबूत मौजूद थे । ये सजायें ऐसे समय माफ की गई थीं, जबकि नित्य नये हिन्दू मुसलिम दंगे बढ़ते ही जाते थे । यदि काकोरी के कैदियों को मत्युदंड माफ करके दूसरी सजा देने से दूसरों का उत्साह बढ़ता तो क्या इसी प्रकार मजहबी दंगों के सम्बन्ध में भी नहीं हो सकता था ? मगर वहां तो मामला कुछ और ही है, जो अब भारतवासियों के नरम से नरम दल के नेताओं के भी शाही कमीशन के मुकर्रर होने और उसमें एक भी भारतवासी के न चुने जाने, पार्लियामेंट में भारत सचिव लार्ड बर्कनहेड के तथा अन्य मजदूर नेताओं के भाषणों से भली भांति समझ में आया है कि किस प्रकार भारतवर्ष को गुलामी की जंजीरों में जकड़े रहने की चालें चली जा रही हैं ।
मैं प्राण त्यागते समय निराश नहीं हूं कि हम लोगों के बलिदान व्यर्थ गए । मेरा तो विश्‍वास है कि हम लोगों की छिपी हुई आहों का ही यह नतीजा हुआ कि लार्ड बर्कनहेड के दिमाग में परमात्मा ने एक विचार उपस्थित किया कि हिन्दुस्तान के हिन्दू मुसलिम झगड़ों का लाभ उठाओ और भारतवर्ष की जंजीरें और कस दो । गए थे रोजा छुड़ाने, नमाज गले पड़ गई ! भारतवर्ष के प्रत्येक विख्यात राजनैतिक दल ने और हिन्दुओं के तो लगभग सभी तथा मुसलमानों के अधिकतर नेताओं ने एक स्वर होकर रायल कमीशन की नियुक्‍ति तथा उसके सदस्यों के विरुद्ध घोर विरोध व्यक्त किया है, और अगली कांग्रेस (मद्रास) पर सब राजनैतिक दल के नेता तथा हिन्दू मुसलमान एक होने जा रहे हैं । वाइसराय ने जब हम काकोरी के मत्युदण्ड वालों की दया प्रार्थना अस्वीकार की थी, उसी समय मैंने श्रीयुत मोहनलाल जी को पत्र लिखा था कि हिन्दुस्तानी नेताओं को तथा हिन्दू-मुसलमानों को अगली कांग्रेस पर एकत्रित हो हम लोगों की याद मनानी चाहिए । सरकार ने अशफाकउल्ला को रामप्रसाद का दाहिना हाथ करार दिया । अशफाकउल्ला कट्टर मुसलमान होकर पक्के आर्यसमाजी रामप्रसाद का क्रान्तिकारी दल के सम्बन्ध में यदि दाहिना हाथ बनते, तब क्या नये भारतवर्ष की स्वतन्त्रता के नाम पर हिन्दू मुसलमान अपने निजी छोटे छोटे फायदों का ख्याल न करके आपस में एक नहीं हो सकते ?
परमात्मा ने मेरी पुकार सुन ली और मेरी इच्छा पूरी होती दिखाई देती है । मैं तो अपना कार्य कर चुका । मैंने मुसलमानों में से एक नवयुवक निकालकर भारतवासियों को दिखला दिया, जो सब परीक्षाओं में पूर्ण उत्तीर्ण हुआ । अब किसी को यह कहने का साहस न होना चाहिए कि मुसलमानों पर विश्‍वास न करना चाहिए । पहला तजुर्बा था, जो पूरी तौर से कामयाब हुआ । अब देशवासियों से यही प्रार्थना है कि यदि वे हम लोगों के फांसी पर चढ़ने से जरा भी दुखित हुए हों, तो उन्हें यही शिक्षा लेनी चाहिए कि हिन्दू-मुसलमान तथा सब राजनैतिक दल एक होकर कांग्रेस को अपना प्रतिनिधि मानें । जो कांग्रेस तय करे, उसे सब पूरी तौर से मानें और उस पर अमल करें । ऐसा करने के बाद वह दिन बहुत दूर न होगा जबकि अंग्रेजी सरकार को भारतवासियों की मांग के सामने सिर झुकाना पड़े, और यदि ऐसा करेंगे तब तो स्वराज्य कुछ दूर नहीं । क्योंकि फिर तो भारतवासियों को काम करने का पूरा मौका मिल जाएगा । हिन्दू-मुस्लिम एकता ही हम लोगों की यादगार तथा अन्तिम इच्छा है, चाहे वह कितनी कठिनता से क्यों न प्राप्‍त हो । जो मैं कह रहा हूं वही श्री अशफाकउल्ला खां वारसी का भी मत है, क्योंकि अपील के समय हम दोनों लखनऊ जेल में फांसी की कोठरियों में आमने सामने कई दिन तक रहे थे । आपस में हर तरह की बातें हुई थीं । गिरफ्तारी के बाद से हम लोगों की सजा बढ़ने तक श्री अशफाकउल्ला खां की बड़ी भारी उत्कट इच्छा यही थी कि वह एक बार मुझ से मिल लेते जो परमात्मा ने पूरी की ।
श्री अशफाकउल्ला खां तो अंग्रेजी सरकार से दया प्रार्थना करने पर राजी ही न थे । उसका तो अटल विश्‍वास यही था कि खुदाबन्द करीम के अलावा किसी दूसरे से प्रार्थना न करनी चाहिए, परन्तु मेरे विशेष आग्रह से ही उन्होंने सरकार से दया प्रार्थना की थी । इसका दोषी मैं ही हूं जो मैंने अपने प्रेम के पवित्र अधिकारों का उपयोग करके श्री अशफाकउल्ला खां को उनके दृढ़ निश्‍चय से विचलित किया । मैंने एक पत्र द्वारा अपनी भूल स्वीकार करते हुए भ्रातृ-द्वितीया के अवसर पर गोरखपुर जेल से श्री अशफाक को पत्र लिखकर क्षमा प्रार्थना की थी । परमात्मा जाने कि वह पत्र उनके हाथों तक पहुंचा भी था या नहीं । खैर ! परमात्मा की ऐसी इच्छा थी कि हम लोगों को फांसी दी जाए, भारतवासियों के जले हुए दिलों पर नमक पड़े, वे बिलबिला उठें और हमारी आत्माएं उनके कार्य को देखकर सुखी हों । जब हम नवीन शरीर धारण करके देश सेवा में योग देने को उद्यत हों, उस समय तक भारतवर्ष की राजनैतिक स्थिति पूर्णतया सुधरी हुई हो । जनसाधारण का अधिक भाग सुरक्षित हो जाए । ग्रामीण लोग भी अपने कर्त्तव्य समझने लग जाएं ।
प्रिवी कौंसिल में अपील भिजवाकर मैंने जो व्यर्थ का अपव्यय करवाया, उसका भी एक विशेष अर्थ था । सब अपीलों का तात्पर्य यह था कि मृत्युदंड उपयुक्त नहीं । क्योंकि न जाने किसकी गोली से आदमी मारा गया । अगर डकैती डालने की जिम्मेदारी के ख्याल से मृत्युदण्ड दिया गया तो चीफ कोर्ट के फैसले के अनुसार भी मैं ही डकैतियों का जिम्मेदार तथा नेता था, और प्रान्त का नेता भी मैं ही था । अतःएव मृत्युदण्ड तो अकेला मुझे ही मिलना चाहिए था । अन्य तीन को फांसी नहीं देनी चाहिए थी । इसके अतिरिक्त दूसरी सजाएं सब स्वीकार होती । पर ऐसा क्यों होने लगा ? मैं विलायती न्यायालय की भी परीक्षा करके स्वदेशवासियों के लिए उदाहरण छोड़ना चाहता था कि यदि कोई राजनैतिक अभियोग चले तो वे कभी भूलकर के भी किसी अंग्रेजी अदालत का विश्‍वास न करें । तबीयत आये तो जोरदार बयान दें । अन्यथा मेरी तो राय है कि अंग्रेजी अदालत के सामने न तो कभी कोई बयान दें और न कोई सफाई पेश करें, काकोरी षड्यन्त्र के अभियोग से शिक्षा प्राप्‍त कर लें । इस अभियोग में सब प्रकार के उदाहरण मौजूद हैं । प्रिवी कौंसिल में अपील दाखिल कराने का एक विशेष अर्थ यह भी था कि मैं कुछ समय तक फांसी की तारीख टलवा कर यह परीक्षा करना चाहता था कि नवयुवकों में कितना दम है और देशवासी कितनी सहायता दे सकते हैं । इससे मुझे बड़ी निराशाजनक सफलता हुई । अन्त में मैंने निश्‍चय किया था कि यदि हो सके तो जेल से निकल भागूं । पैसा हो जाने से सरकार को अन्य तीन फांसी वालों की सजा माफ कर देनी पड़ेगी और यदि न करते तो मैं करा लेता । मैंने जेल से भागने के अनेकों प्रयत्‍न किये, किन्तु बाहर से कोई सहायता न मिल सकी । यहीं तो हृदय को आघात लगता है कि जिस देश में मैंने इतना बड़ा क्रान्तिकारी आन्दोलन तथा षड्यन्त्रकारी दल खड़ा किया था, वहां से मुझे प्राण-रक्षा के लिए एक रिवाल्वर तक न मिल सका ! एक नवयुवक भी सहायता को न आ सका ! अन्त में फांसी पा रहा हूं । फांसी पाने का मुझे कोई शौक नहीं, क्योंकि मैं इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि परमात्मा को यही मंजूर था । मगर मैं नवयुवकों से फिर भी नम्र निवेदन करता हूं कि जब तक भारतवासियों की अधिक संख्या सुशिक्षित न हो जाए, जब तक उन्हें कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का ज्ञान न हो जाए, तब तक वे भूलकर भी किसी प्रकार के क्रान्तिकारी षड्यन्त्रों में भाग न लें । यदि देश सेवा की इच्छा हो तो खुले आन्दोलनों द्वारा यथाशक्‍ति कार्य करें, अन्यथा उनका बलिदान उपयोगी न होगा । दूसरे प्रकार से इससे अधिक देश सेवा हो सकती है, जो ज्यादा उपयोगी सिद्ध होगी । परिस्थिति अनुकूल न होने से ऐसे आन्दोलनों में परिश्रम प्रायः व्यर्थ जाता है । जिसकी भलाई के लिए करो, वही बुरे बुरे नाम धरते हैं और अन्त में मन ही मन कुढ़ कर प्राण त्यागने पड़ते हैं।देशवासियों से यही अन्तिम विनय है कि जो कुछ करें, सब मिलकर करें और सब देश की भलाई के लिए करें । इसी से सबका भला होगा।
मरते 'बिस्मिल' 'रोशन' 'लहरी' 'अशफाक' अत्याचार से।
होंगे पैदा सैंकड़ों इनके रुधिर की धार से ॥

(समाप्त)
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कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

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