20100616

मुफलिसी में विरासत बचाने की कोशिश

भारतीयता हर कहीं हाशिये पर है. फिर क्या भाषा, क्या कला और क्या संगीत. जहां कही जो कुछ भी भारतीय स्वभाव, संस्कृति और परंपरा का हिस्सा है वह हाशिये पर है. काली भैया का टुहिला भी इसी तरह के संकट का शिकार वाद्ययंत्र है. जिस टुहिला को आदिवासियों के पूज्य पुरुष बिरसा मुण्डा बजाया करते थे उसी टुहिला को अब कालीशंकर अपनी मुफलिसी में भी बचाये रखना चाहते हैं. इस नाउम्मीदी के बाद भी कि उनका ही बेटा टुहिला सीखने को नहीं तैयार है. रांची से अनुपमा कुमारी की रिपोर्ट-

जेठ बैसाख मासे-2
ए मन तोयें उदासे-2
ए भाई, जने देखूं तने दिसे
लहलह पात कहूं, केके कहूं बात
कहूं केके कहूं बात..

पूरे लय, छंद और ताल के साथ कालीशंकर जब कानों पर हाथ रखकर इस गीत को गाकर सुनाते हैं तो गाते-गाते वे खुद रुआंसे से हो जाते हैं. लेकिन इस गीत में रचे-बसे दुख की गहराई का सही अंदाजा तब लगता है जब वे शर्ट-पैंट उतारकर धोती पहनते हैं और इसे टूहिला पर सुनाते हैं. बांस की फट्टी के एक छोर पर कद्दू या लौकी का आधा खोखला हिस्सा (तुंबा), दूसरी ओर सिर्फ धागे को थोड़ी ऊंचाई से बांधने के लिए एक लकड़ी की हुक और काले बांस में छेदकर 4-5 जगह बांधे गए रेशम के धागे, यही है टूहिला का स्वरूप. धागों को कसकर, स्वर की परख करने के बाद कालीशंकर दादा ने टूहिला सीने से लगाया और इसे बजाते हुए गीत शुरू किया. गाते-गाते वे कब रोने लगे, पता ही नहीं चला. जितने गाढ़े दुख से रंगा यह गीत है, उतनी ही मार्मिक इसकी धुन. गीत खत्म हुआ तो कालीशंकर दो-चार मिनट तक ध्यान मुद्रा में वैसे ही खड़े रहे. पूरे माहौल में एक गहरी उदासी और सन्नाटा. आखिर इस गीत में ऐसा क्या है जो गाने और सुनने वाले को इतना विह्वल कर देता है?

काली दा पहले तो गीत का अर्थ बताते हैं, फिर कहते हैं, ‘यह जो टूहिला है न, यह दुख, विरह, वेदना के स्वर को बढ़ा देता है. इस वाद्य यंत्र को सीने से लगाकर बजाते हैं, नंगे बदन.’ दरअसल, यह आदि वाद्य यंत्र है, लौह युगीन सभ्यता से भी पहले का. तब का जब मानव मन में सांस्कृतिक चेतना जगनी शुरू ही हुई थी. चूंकि वाद्य यंत्रों का कोई लिखित इतिहास नहीं है इसलिए इसकी प्रामाणिकता नहीं पेश की जा सकती. परंतु एक लोकगीत में इस बात का भी जिक्र है कि आदिवासी समाज के नायक और महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा भी टूहिला बहुत बढ़िया बजाया करते थे. एक और विशेष बात. बदलते समय के साथ सारे वाद्य यंत्र बदल गये पर टूहिला अब तक नहीं बदला है. दादा एक गहरी सांस लेते हुए अफसोस के साथ कहते हैं, ‘अब क्या बदलाव होगा इसमें? अब तो यह अपने आखिरी दौर में है. अब इसे बजाएगा कौन? मैं अपने बेटे तक को तो शागिर्द नहीं बना सका.’

उनका बेटा टूहिला नहीं बजाता, ड्राइवरी करता है. मन में सवाल उठता है कि झारखंड में तो इतने गायक और वादक हैं, फिर किसी में इस वाद्य यंत्र को सीखने की ललक क्यों नहीं होती? कालीशंकर कहते हैं, ‘एक कारण इसकी बनावट हो सकती है. इसे बजाने के लिए अन्य वाद्य यंत्रों से ज्यादा रियाज की जरूरत है. पर इसमें जितनी अधिक मेहनत है, उससे उलट नाम और दाम. यानी कीमत नहीं मिलती इसे बजाने से. लोग भूल चुके हैं इसे.’

कालीशंकर सारंगी और बांसुरी बजाने में भी दक्ष हैं. कोलकाता, दिल्ली, चेन्नई जैसे कई शहरों और अमेरिका में भी जाकर वे अपनी कला का प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन आज भी जो संतोष उन्हें टूहिला बजाकर मिलता है वह कहीं नहीं मिलता. रोज खेत से लौटकर, चाहे कितने भी थके क्यों न हों, टूहिला पर हाथ फेर ही लेते हैं. वे कहते हैं, ‘मेरा मन तो बस टूहिला में ही बसता है. मैं चाहता हूं यह बचा रहे, सदा बजता रहे. कोई तो आए. मैं सिखाने को तैयार हूं. मुझे कुछ नहीं चाहिए इसके बदले में.’

कालीशंकर के गुरु उनके पिता श्री द्रीपनाथ महली उम्दा कलाकार और आकाशवाणी के स्थायी गायक-वादक थे. कालीशंकर टूहिला के इकलौते प्रोफेशनल वादक हैं. जैसे टूहिला अब विलुप्तप्राय है, वैसे ही इसके बजाने वालों में भी संभवत: आखिरी कलाकार बचे हैं कालीशंकर. रांची विश्वविद्यालय के जनजातीय व क्षेत्रीय भाषा विभाग के प्राध्यापक व वरिष्ठ संस्कृतिकर्मी गिरधारी राम गौंझू कहते हैं, ‘संगीत अकादमी के कोलकाता के कार्यक्रम में जब काली ने इसका प्रदर्शन किया था तो विशेषज्ञों ने कहा कि झारखंड को विशिष्टता प्रदान करने वाला यह अकेला वाद्य यंत्र है और इसे पुनजीर्वित करने की जरूरत है.’ 2005 से कला एवं संस्कृति विभाग ने जनजातीय वाद्य यंत्रों को प्रोत्साहन देने के लिए स्कीम भी चलाई कि टूहिला सीखने और सिखाने वालों को प्रोत्साहन राशि मिलेगी. फिर भी यह उपेक्षित है. लोक की यह खासियत होती है कि वह हमेशा सामूहिकता का बोध कराता है. सुख की घड़ी हो या दुख की, हर क्षण समूह बोध सामने होता है. ऐसे में लोक जगत में एकाकी जीवन की परिकल्पना, यह इसके संगीत की नई बात थी. मशहूर गायक मुकुंद नायक कहते हैं, ‘यह प्रकृति और मानव मन से जुड़ा हुआ विरह का स्वर है. उसी मन को शांत करने के लिए आदिपुरुषों ने शायद सबसे पहले टूहिला को लौकी, बांस और धागे से बनाया होगा.’

काली के घर से निकलते समय मन में सवाल उठता है, तो क्या आदिपुरुषों का आदि वाद्य यंत्र, मनुष्य की सांस्कृतिक विरासत की पहली धरोहरों व आविष्कारों में से एक, टूहिला वाकई अपने आखिरी दौर में है? प्रसिद्ध संस्कृतिकर्मी एवं आदिवासी मामलों के जानकार डा. रामदयाल मुंडा कहते हैं, ‘टूहिला के लिए संदर्भ खड़ा करना होगा. इसे रीवाइव किए जाने की जरूरत है. इस वाद्य यंत्र का नाजुक पक्ष यह है कि इसे खुले बदन में ही बजाया जाता है. इसमें शरीर रेजोनेंस का काम करता है. इसकी वादन शैली काफी पेचीदा है. यदि इसे बचाना है तो इसमें कुछ बदलाव करना होगा. लौकी, रेशम के स्टिंग का विकल्प ढूंढ़ना होगा. यह एकांत में बजाया जाता है, समूह में नहीं. आवाज इतनी मृदु है कि वह अन्य वाद्य यंत्रों में खो-सी जाती है और यह केवल दुख में बजता है. इसमें सौंदर्य बोध डाल दिया जाए या एंप्लिफाई कर दिया जाए तो इसे बचाया जा सकता है.’ लेकिन काली उनकी बातों से इत्तेफाक नहीं रखते. वे कहते हैं, ‘ऐसा कभी भी नहीं होना चाहिए. कुछ चीजों को शाश्वत रूप में ही रहने देना चाहिए. यदि बदलाव किए गए तो मौलिकता नष्ट हो जाएगी. इसकी पहचान ही खत्म हो जाएगी.’ और एक आखिरी बात. कालीशंकर रांची में ही रहते हैं. उसी के निकट, जहां राष्ट्रीय खेलों के आयोजन के लिए खेलगांव बना है, जहां झारखंड का पहला विशाल कला भवन बना है. लेकिन वे रांची में रहकर भी रांची में नहीं रहते. न किसी गांव में, न बस्ती-मोहल्ले में. उन्होंने बस्ती से दूर अकेले खेत में अपने सहिया के साथ खपरैल घर बना लिया हैं. वहीं काली का पूरा परिवार रहता है. मन में प्रश्न उठता है, क्या उनका यह एकाकी जीवन भी टूहिला का ही प्रभाव है?

----------------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

मधुमक्खी को मानव का डंक

जाने माने वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंसटाइन की दशकों पहले की गई भविष्यवाणी कि आखिरी मधुमक्खी के मरने के बाद समूची मानवता के पास सात-आठ साल से अधिक नहीं बचेंगे, पंजाब की काटन बेल्ट में कुछ लोगों को याद आनी शुरू हो गई है। इस बार अनुभव किया गया है कि मधुमक्खियां बीटी काटन के खेतों के पास भी नहीं फटक रहीं।

बीटी काटन के बीज प्रयोगशाला में बनाए जेनेटिकली मॉडीफाइड (जीएम) सीड्स की श्रेणी में आते हैं। पटियाला के राजिंदरा अस्पताल में एसएमओ व कम्युनिटी मेडिसन में एमडी डा. अमर सिंह आजाद बताते हैं कि बीटी काटन से मधुमक्खियों का नर्वस सिस्टम प्रभावित होने से इनकी छत्ते पर लौटने की सेंस खत्म होती जा रही है, इसे तकनीकी भाषा में कालोनी क्लैप्सकहते हैं। कोई भी मधुमक्खी कालोनी के बिना नहीं रह सकती। वापस न पहुंचने की सूरत में वे मर जाती हैं। लेकिन इसके लिए सिर्फ जीएम फसलें ही जिम्मेवार नहीं हैं। हर तरफ पेड़-पौधों, फसलों पर जहरीली दवाओं का छिड़काव हो रहा है, जड़ों में रसायन डाले जा रहे हैं। ऐसे में इनका खाना अब पेस्टिसाइड्स से बनने लगा है और प्रजनन की क्षमता कम होती जा रही है। वे बताते हैं कि अभी आस्ट्रेलियन मधुमक्खी बची हुई है, इस पालतू मक्खी की कालोनियां पास-पास होने के चलते प्रभाव में उतनी नहीं आई हैं।

उल्लेखनीय है कि राज्य के मालवा इलाके में संगरूर-मानसा से शुरू हो फरीदकोट, अबोहर, फाजिल्का व राजस्थान में श्रीगंगानगर और हनुमानगढ़ तक की बेल्ट में नरमे के खेतों में कभी इन्हीं मधुमक्खियों के छत्ते खूब लगा करते थे, लेकिन अब सिर्फ पंजाब भर में ही साढ़े पांच लाख हेक्टेयर में कपास की खेती करने के तय किए गए लक्ष्य में से 85 फीसदी के बीटी काटन के जरिए हासिल किए जाने की पूरी उम्मीद है। फाइव एलिमेंट्स हेल्थ एंड एजूकेशनल सोसायटी के जोगिंदर टाइगर कहते हैं कि प्रकृति में जितने भी फल, फूल और हैं, वे सब इन्हीं की देन हैं। अगर मधुमक्खियां पॉलीनेशन (परागण) प्रक्रिया में पराग के कण एक पौधे से दूसरे पौधे तक न ले जाएं तो कुछ भी नहीं पनपने वाला। सब कुछ समाप्त हो जाएगा, इसमें सबसे पहले प्रकृति में से रंग गायब होंगे।

मालवा क्षेत्र में खेती पर नजर रखने वाले खेती विरासत मिशन के उमेंद्र दत्त कहते हैं कि नरमे की खेती वाला क्षेत्र अब काटन बेल्ट हो गया है, कभी यहां नरमे में ही मधुमक्खियों के छत्ते लग जाया करते थे, कपास के फलने फूलने का सबसे बड़ा कारण ही यह देसी मधुमक्खी हुआ करती थी, जो आज पास नहीं फटक रहीं। वे बताते हैं कि शुरुआत में उनके पास हरियाणा के जींद जिले से बीते साल ऐसी खबरें आई थीं। वहीं, अमृतसर के पर्यावरण लेखक डा. अर्नेस्ट कहते हैं कि वे बचपन में 10 से 15 फीट तक के छत्ते देखते आए हैं अब तीन से चार फीट से अधिक का नहीं दिखता। वे बताते है कि गुरदासपुर क्षेत्र में फलों के बाग से शहद निकालने का अलग से पांच-सात हजार रुपये का ठेका हुआ करता था, पर अब यह चलन सुनाई ही नहीं दे रहा। डा. अर्नेस्ट के अनुसार खेती, पर्यावरण, वाणिज्य व अर्थशास्त्र में जो काम मधुमक्खियां करती हैं, वह यदि इंसान या मशीन को करना पड़े तो विश्र्व भर में 32 बिलियन डालर का खर्च आए.

(भूपेश चट्ठा, पटियाला)

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महाघोटाले का 'महा' राजा

2 जी स्पेक्ट्रम घोटाले में दिल्ली के एक अखबार और एक पत्रिका में कवर स्टोरी बनने के बाद मीडिया ने लगभग पूरे मामले को ठंडे बस्ते में डाल दिया है. मीडिया इस भ्रष्टाचार पर जानबूझकर रिपोर्ट नहीं कर रहा है. लेकिन सुरेश चिपलूणकर इस मामले की खोजबीन कर रहे हैं. यहां प्रस्तुत है उनकी खोजबीन का पहला हिस्सा.

इस टूजी महाघोटाले को समझने के लिए पहले ितथियों में इस घटनाक्रम को समझ लेते हैं.

- 16 मई 2007 को राजा बाबू को प्रधानमंत्री ने कैबिनेट में दूरसंचार मंत्रालय दिया।
(2009 में फ़िर से यह मंत्रालय हथियाने के लिये नीरा राडिया, राजा बाबू और करुणानिधि की पुत्री कनिमोझि के बीच जो बातचीत हुई उसकी फ़ोन टैप की गई थी, उस बातचीत का कुछ हिस्सा आगे पेश करूंगा…)
- 28 अगस्त 2007 को TRAI (दूरसंचार नियामक प्राधिकरण) ने बाजार भाव पर विभिन्न स्पेक्ट्रमों के लाइसेंस जारी करने हेतु दिशानिर्देश जारी किये, ताकि निविदा ठेका लेने वाली कम्पनियाँ बढ़चढ़कर भाव लगायें और सरकार को अच्छा खासा राजस्व मिल सके।
- 28 अगस्त 2007 को ही राजा बाबू ने TRAI की सिफ़ारिशों को खारिज कर दिया, और कह दिया कि लाइसेंस की प्रक्रिया जून 2001 की नीति (पहले आओ, पहले पाओ) के अनुसार तय की जायेंगी (ध्यान देने योग्य बात यह है कि 2001 में भारत में मोबाइलधारक सिर्फ़ 40 लाख थे, जबकि 2007 में थे पैंतीस करोड़। (यानी राजा बाबू केन्द्र सरकार को चूना लगाने के लिये, कम मोबाइल संख्या वाली शर्तों पर काम करवाना चाहते थे।)
- 20-25 सितम्बर 2007 को राजा ने यूनिटेक, लूप, डाटाकॉम तथा स्वान नामक कम्पनियों को लाइसेंस आवेदन देने को कह दिया (इन चारों कम्पनियों में नीरा राडिया तथा राजा बाबू की फ़र्जी कम्पनियाँ भी जुड़ी हैं), जबकि यूनिटेक तथा स्वान कम्पनियों को मोबाइल सेवा सम्बन्धी कोई भी अनुभव नहीं था, फ़िर भी इन्हें इतना बड़ा ठेका देने की योजना बना ली गई।
- दिसम्बर 2007 में दूरसंचार मंत्रालय के दो वरिष्ठ अधिकारी (जो इस DOT की नीति को बदलने का विरोध कर रहे थे, उसमें से एक ने इस्तीफ़ा दे दिया व दूसरा रिटायर हो गया), इसी प्रकार राजा द्वारा “स्वान” कम्पनी का पक्ष लेने वाले दो अधिकारियों का ट्रांसफ़र कर दिया गया। इसके बाद राजा बाबू और नीरा राडिया का रास्ता साफ़ हो गया।
- 1-10 जनवरी 2008 : राजा बाबू पहले पर्यावरण मंत्रालय में थे, वहाँ से वे अपने विश्वासपात्र(?) सचिव सिद्धार्थ बेहुरा को दूरसंचार मंत्रालय में ले आये, फ़िर कानून मंत्रालय को ठेंगा दिखाते हुए DOT ने ऊपर बताई गई चारों कम्पनियों को दस दिन के भीतर नौ लाइसेंस बाँट दिये।
22 अप्रैल 2008 को ही राजा बाबू के विश्वासपात्र सेक्रेटरी सिद्धार्थ बेहुरा ने लाइसेंस नियमों में संशोधन(?) करके Acquisition (अधिग्रहण) की जगह Merger (विलय) शब्द करवा दिया ताकि यूनिटेक अथवा अन्य सभी कम्पनियाँ “तीन साल तक कोई शेयर नहीं बेच सकेंगी” वाली शर्त अपने-आप, कानूनी रूप से हट गई।
- 13 सितम्बर 2008 को राजा बाबू ने BSNL मैनेजमेंट बोर्ड को लतियाते हुए उसे “स्वान” कम्पनी के साथ “इंट्रा-सर्कल रोमिंग एग्रीमेण्ट” करने को मजबूर कर दिया। (जब मंत्री जी कह रहे हों, तब BSNL बोर्ड की क्या औकात है?)
- सितम्बर अक्टूबर 2008 : “ऊपर” से हरी झण्डी मिलते ही, इन कम्पनियों ने कौड़ी के दामों में मिले हुए 2G स्पेक्ट्रम के लाइसेंस और अपने हिस्से के शेयर ताबड़तोड़ बेचना शुरु कर दिये- जैसे कि स्वान टेलीकॉम ने अपने 45% शेयर संयुक्त अरब अमीरात की कम्पनी Etisalat को 4200 करोड़ में बेच दिये (जबकि स्वान को ये मिले थे 1537 करोड़ में) अर्थात जनवरी से सितम्बर सिर्फ़ नौ माह में 2500 करोड़ का मुनाफ़ा, वह भी बगैर कोई काम-धाम किये हुए। अमीरात की कम्पनी Etisalat ने यह भारी-भरकम निवेश मॉरीशस के बैंकों के माध्यम से किया (गौर करें कि मॉरीशस एक “टैक्स-स्वर्ग” देश है और ललित मोदी ने भी अपने काले धंधे ऐसे ही देशों के अकाउंट में किये हैं और दुनिया में ऐसे कई देश हैं, जिनकी पूरी अर्थव्यवस्था ही भारत जैसे भ्रष्ट देशों से आये हुए काले पैसे पर चलती है)…

- यूनिटेक वायरलेस ने अपने 60% शेयर नॉर्वे की कम्पनी टेलनॉर को 6200 करोड़ में बेचे, जबकि यूनिटेक को यह मिले थे सिर्फ़ 1661 करोड़ में।
- टाटा टेलीसर्विसेज़ ने अपने 26% शेयर जापान की डोकोमो कम्पनी को 13230 करोड़ में बेच डाले।

अर्थात राजा बाबू और नीरा राडिया की मिलीभगत से लाइसेंस हथियाने वाली लगभग सभी कम्पनियों ने अपने शेयरों के हिस्से 70,022 करोड़ में बेच दिये जबकि इन्होंने सरकार के पास 10,772 करोड़ ही जमा करवाये थे। यानी कि राजा बाबू ने केन्द्र सरकार को लगभग 60,000 करोड़ का नुकसान करवा दिया (अब इसमें से राजा बाबू और नीरा को कितना हिस्सा मिला होगा, यह कोई बेवकूफ़ भी बता सकता है, तथा सरकार को जो 60,000 करोड़ का नुकसान हुआ, उससे कितने स्कूल-अस्पताल खोले जा सकते थे, यह भी बता सकता है)।

- 15 नवम्बर 2008 को केन्द्रीय सतर्कता आयोग ने राजा बाबू को नोटिस थमाया, सतर्कता आयोग ने इस महाघोटाले की पूरी रिपोर्ट प्रधानमंत्री को सौंप दी और लोकतन्त्र की परम्परानुसार(?) राजा पर मुकदमा चलाने की अनुमति माँगी।
- 21 अक्टूबर 2009 को (यानी लगभग एक साल बाद) सीबीआई ने इस घोटाले की पहली FIR लिखी।
- 29 नवम्बर 2008, 31 अक्टूबर 2009, 8 मार्च 2010 तथा 13 मार्च 2010 को डॉ सुब्रह्मण्यम स्वामी ने प्रधानमंत्री को कैबिनेट से राजा को हटाने के लिये पत्र लिखे, लेकिन “भलेमानुष”(?) के कान पर जूं तक नहीं रेंगी।
- 19 मार्च 2010 को केन्द्र सरकार ने अपने पत्र में डॉ स्वामी को जवाब दिया कि “राजा पर मुकदमा चलाने अथवा कैबिनेट से हटाने के सम्बन्ध में जल्दबाजी में कोई फ़ैसला नहीं लिया जायेगा, क्योंकि अभी जाँच चल रही है तथा सबूत एकत्रित किये जा रहे हैं…”
- 12 अप्रैल 2010 को डॉ स्वामी ने दिल्ली हाइकोर्ट में याचिका प्रस्तुत की।
- 28 अप्रैल 2010 को राजा बाबू तथा नीरा राडिया के काले कारनामों से सनी फ़ोन टेप का पूरा चिठ्ठा (बड़े अफ़सरों और उद्योगपतियों के नाम वाला कुछ हिस्सा बचाकर) अखबार द पायनियर ने छाप दिया। अब विपक्ष माँग कर रहा है कि राजा को हटाओ, लेकिन कब्र में पैर लटकाये बैठे करुणानिधि, इस हालत में भी दिल्ली आये और सोनिया-मनमोहन को “धमका” कर गये हैं कि राजा को हटाया तो ठीक नहीं होगा…।

जैसा कि मैंने पहले बताया, राजा-करुणानिधि-कणिमोझी-नीरा राडिया जैसों को भारी-भरकम “कमीशन” और “सेवा-शुल्क” दिया गया, यह कमीशन स्विस बैंकों, मलेशिया, मॉरीशस, मकाऊ, आइसलैण्ड आदि टैक्स हेवन देशों की बैंकों के अलावा दूसरे तरीके से भी दिया जाता है… आईये देखें कि नेताओं-अफ़सरों की ब्लैक मनी को व्हाइट कैसे बनाया जाता है –

17 सितम्बर 2008 को चेन्नई में एक कम्पनी खड़ी की जाती है, जिसका नाम है “जेनेक्स एक्ज़िम”, जिसके डायरेक्टर होते हैं मोहम्मद हसन और अहमद शाकिर। इस नई-नवेली कम्पनी को “स्वान” की तरफ़ से दिसम्बर 2008 में अचानक 9.9% (380 करोड़) के शेयर दे दिये जाते हैं, यानी दो कौड़ी की कम्पनी अचानक करोड़ों की मालिक बन जाती है, ऐसा क्यों हुआ? क्योंकि स्वान कम्पनी के एक डायरेक्टर अहमद सैयद सलाहुद्दीन भी जेनेक्स के बोर्ड मेम्बर हैं, और सभी के सभी तमिलनाडु के लोग हैं। सलाहुद्दीन साहब भी दुबई के एक NRI बिजनेसमैन हैं जो “स्टार समूह (स्टार हेल्थ इंश्योरेंस आदि)” की कम्पनियाँ चलाते हैं। यह समूह कंस्ट्रक्शन बिजनेस में भी है, और जब राजा बाबू पर्यावरण मंत्री थे तब इस कम्पनी को तमिलनाडु में जमकर ठेके मिले थे। करुणानिधि और सलाहुद्दीन के चार दशक पुराने रिश्ते हैं और इसी की बदौलत स्टार हेल्थ इंश्योरेंस कम्पनी को तमिलनाडु के सरकारी कर्मचारियों के समूह बीमे का काम भी मिला हुआ है, और स्वान कम्पनी को जेनेक्स नामक गुमनाम कम्पनी से अचानक इतनी मोहब्बत हो गई कि उसने 380 करोड़ के शेयर उसके नाम कर दिये। अब ये तो कोई अंधा भी बता सकता है कि जेनेक्स कम्पनी असल में किसकी है।

29 मई 2009 को जब राजा बाबू को दोबारा मंत्री पद की शपथ लिये 2 दिन भी नहीं हुए थे, दिल्ली हाईकोर्ट के जस्टिस मुकुल मुदगल और वाल्मीकि मेहता ने एक जनहित याचिका की सुनवाई में कहा कि, 2G स्पेक्ट्रम लाइसेंस का आवंटन की “पहले आओ पहले पाओ” की नीति अजीब है, मानो ये कोई सिनेमा टिकिट बिक्री हो रही है? जनता के पैसे के दुरुपयोग और अमूल्य सार्वजनिक सम्पत्ति के दुरुपयोग का यह अनूठा मामला है, हम बेहद व्यथित हैं…”, लेकिन हाईकोर्ट की इस टिप्पणी के बावजूद “भलेमानुष” ने राजा को मंत्रिमण्डल से नहीं हटाया। इसी तरह 1 जुलाई 2009 को जस्टिस जीएस सिस्तानी ने DOT द्वारा लाइसेंस लेने की तिथि को खामख्वाह “जल्दी” बन्द कर दिये जाने की भी आलोचना की।

यह जनहित याचिका दायर की थी, स्वान की प्रतिद्वंद्वी कम्पनी STel ने, अब इस STel को चुप करने और इसकी बाँह मरोड़ने के लिये 5 मार्च 2010 को दूरसंचार विभाग ने गृह मंत्रालय का हवाला देते हुए कहा कि STel कम्पनी के कामकाज के तरीके से सुरक्षा चिताएं हैं इसलिये STel तीन राज्यों में अपनी मोबाइल सेवा बन्द कर दे, न तो कोई नोटिस, न ही कारण बताओ सूचना पत्र। इस कदम से हतप्रभ STel कम्पनी ने कोर्ट में कह दिया कि उसे दूरसंचार विभाग की “पहले आओ पहले पाओ” नीति पर कोई ऐतराज नहीं है, बाद में पता चला कि गृह मंत्रालय ने STel के विरुद्ध सुरक्षा सम्बन्धी ऐसे कोई गाइडलाइन जारी किये ही नहीं थे, लेकिन STel कम्पनी को भी तो धंधा करना है, पानी (मोबाइल सेवा) में रहकर मगरमच्छ (ए राजा) से बैर कौन मोल ले?

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ईवीएम धोखाधड़ी से बनी यूपीए सरकार पार्ट-2

जिस वक्त इधर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पत्रकारों को यूपीए सरकार के एक साल की उपलब्धियां गिना रहे थे उससे एक दिन पहले अमेरिका में मिशिगन विश्वविद्यालय के कम्प्यूटर साइंस के प्रोफेसर जे एलेक्स हेल्डरमैन की एक रिपोर्ट सामने आ गयी जो इस शक को पुख्ता कर रही है कि यूपीए सरकार की दूसरी पारी और बीते आमचुनाव में कांग्रेस की भारी जीत और कुछ नहीं ईवीएम मशीनों की गड़बड़ी का नतीजा है.

बीते आमचुनाव में कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता मिली थी और उसे 207 सीटें हासिल हुई थीं. कांग्रेस के इस अप्रत्याशित परफार्मेन्स पर खुद कांग्रेस के ही नेताओं को यकीन नहीं हो रहा था. उसके बाद भाजपा के कुछ प्रत्याशियों ने चुनाव आयोग में शिकायत की कि उनकी हार के लिए ईवीएम मशीनें जिम्मेदार हैं. बक्सर से भाजपा प्रत्याशी लालमुनि चौबे ने चुनाव आयोग में शिकायत की थी कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की गयी है. चौबे की इस शिकायत के बाद भाजपा ने यह मुद्दा चुनाव आयोग के सामने कई बार उठाया और भाजपा नेता लालकृष्ण आडवाणी ने ईवीएम मशीनों की जगह बैलेट बाक्स की वकालत शुरू कर दी. लेकिन भाजपा और शिवसेना नेताओं की इस शिकायत को न तो सत्तारूढ़ पार्टी ने बहुत महत्व दिया और न ही चुनाव आयोग ने कुछ खास ध्यान दिया. चुनाव आयुक्त नवीन चावला का कहना है कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ नहीं की जा सकती और यह बहुत ही विश्वसनीय प्रणाली है.

लेकिन अब एक अमेरिकी प्रोफेसर द्वारा यह दावा किये जाने के बाद कि बीते लोकसभा चुनाव में प्रयुक्त की गयी ईवीएम मशीनों के पैटर्न का अध्ययन करने के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि ईवीएम मशीनों के साथ छेड़छाड़ की जा सकती है. प्रोफेसर जे एलेक्स हेल्डरमैन ने नीदरलैण्ड की एक सुरक्षा एजंसी और हैदराबाद की नेटइंडिया के साथ मिलकर सात महीने का एक रिसर्च प्रोजेक्ट पूरा किया है. अपने अध्ययन के बाद हैल्डरमैन का कहना है कि "ईवीएम मशीनों के लगभग हर हिस्से को प्रभावित किया जा सकता है और चुनावों का मैनुपुलेशन किया जा सकता है." अपने अध्ययन में अमेरिकी प्रोफेसर ने निष्कर्ष निकाला है कि एक मोबाइल फोन के इस्तेमाल से ईवीएम की मशीनों में बंद उम्मीदवारों के भाग्य का फैसला बदला जा सकता है. प्रोफेसर हेल्डरमैन का निष्कर्ष है कि मोबाइल फोन के इस्तेमाल के अलावा एक माइक्रोप्रोसेसर का इस्तेमाल करके भी चुनाव परिणामों को न केवल मतदान के वक्त बल्कि मतगणना के वक्त भी फेरबदल किया जा सकता है. अध्ययन दल अपने नतीजों को लेकर पूरी तरह से आश्वस्त है और चाहता है कि अपने अध्ययन को भारतीय चुनाव आयोग के सामने प्रस्तुत करे.

भारत में बीते आमचुनाव में सिर्फ ईवीएम का इस्तेमाल हुआ था. देश के 8,29,000 पोलिंग बूथों पर 14 लाख ईवीएम मशीनों का इस्तेमाल किया गया था. उस वक्त भी इन मशीनों पर सवाल उठाया गया था और अब तो यह बात प्रमाणित हो गयी है कि अमेरिका और जापान में निर्मित इन मशीनों का इस्तेमाल उनके अपने ही देश में क्यों नहीं होता. तो क्या उन लोगों की शिकायतें सही हैं कि कांग्रेस की भारी जीत और यूपीए की सरकार पार्ट-2 और कुछ नहीं सिर्फ ईवीएम की धोखाधड़ी है?

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