20100916

विदेशी पूंजी से विकास का अंधविश्वास

लगभग सात वर्ष पहले की बात है. दूरसंचार क्षेत्र में निजी कंपनियों को लाइसेन्स दिये हुए कुछ वर्ष हो चुके थे. किन्तु इन कंपनियों ने सरकार को लाइसेन्स शुल्क का नियमित भुगतान नहीं किया था और उनके ऊपर अरबों रुपया बकाया हो गया था. जब उनको नोटिस दिए जाने लगे, तो इन कंपनियों ने फरियाद की कि उनका धन्धा ठीक नहीं चल रहा है, उनका शुल्क कम किया जाये और बकाया शुल्क माफ किया जाये. तब भारत सरकार के दूरसंचार मन्त्री श्री जगमोहन, एक सख्त आदमी थे. उन्होंने निजी टेलीफोन कंपनियों की बात मानने से इन्कार कर दिया और बकाया शुल्क जमा नहीं करने पर लाइसेन्स रद्द करने की चेतावनी दी. उन्होंने कहा कि आपका धन्धा नहीं चल रहा है तो बन्द कर दो, लेकिन सरकार को पैसा तो देना पड़ेगा. तब ये कंपनियाँ मिलकर प्रधानमन्त्री कार्यालय में गयीं और वहाँ फरियाद की. प्रधानमन्त्री कार्यालय ने भी उनकी तरफदारी की, किंतु जगमोहन टस से मस नहीं हुए. नतीजा यह हुआ कि जगमोहन को दूरसंचार मन्त्रालय से हटा दिया गया, प्रमोद महाजन को दूरसंचार मन्त्री बनाया गया और निजी कंपनियों की लाइसेन्स शर्तों को बदलकर करीब ५००० करोड़ रुपये की राहत उनको दे दी गई. एक ईमानदार मन्त्री और निजी कंपनियों के बीच संघर्ष में जीत कंपनियों की हुई. इस खेल में कितना कमीशन किसको मिला होगा, इसका अंदाज आप लगा सकते हैं. निजीकरण, उदारीकरण, भूमंडलीकरण के नाम पर यही खेल पिछले डेढ़ दशक से चल रहा है.

दूसरी ओर, ठीक इसी समय देश के कई हिस्सों में किसानों की आत्महत्याएं भी शुरू हो गयी थीं. खेती एक गहरे संकट में फंस चुकी थी, जिसके लिए स्वयं भूमंडलीकरण की नीतियाँ जिम्मेदार थीं. विश्व बैंक के निर्देश पर खाद, बीज, पानी, डीजल, बिजली आदि की कीमतें लगातार बढ़ाई जा रही थीं. विश्व व्यापार संगठन की नई खुली व्यवस्था के तहत खुले आयात के कारण किसानों की उपज के दाम या तो गिर रहे हैं या पर्याप्त नहीं बढ़ रहे हैं. किसानों पर भारी कर्जा हो गया है. देशी – विदेशी टेलीफोन कंपनियों को ५००० करोड़ रुपये की राहत देने वाली सरकार को यह ख्याल नहीं आया कि किसानों का करजा माफ कर दें या खाद – डीजल – बिजली सस्ता कर दें या समर्थन – मूल्य पर्याप्त बढ़ा दें. यदि कंपनियों का धन्धा नहीं चल रहा था, तो किसान की खेती में भी तो भारी घाटा हो रहा है! लेकिन किसानों को, गरीबों को या आम जनता को राहत देना अब सरकार के एजेंडे में नहीं है.


विदेशियों का हुक्म सिर आँखों पर

देशप्रेम के स्थान पर विदेश प्रेम तथा आम जनता के स्थान पर कंपनियों के हितों को बढ़ाना – यही भूमंडलीकरण की नई व्यवस्था का मर्म है. इस अंधे विदेश प्रेम ने हमारे मंत्रियों, अधिकारियों, विशेषज्ञों और अर्थशास्त्रियों की सोचने की शक्ति को भी कुंद कर दिया है. पिछले पन्द्रह वर्षों से उन्होंने मान लिया है कि देश का विकास विदेशी पूंजी और विदेशी कंपनियों से ही होगा. विदेशी पूंजी को आकर्षित करने के लिए और खुश करने के लिए भारत की सरकारों ने पिछले पन्द्रह वर्षों में सारी नीतियाँ और नियम-कानून बदल डाले. पिछले पन्द्रह वर्षों में हमारी संसद तथा विधानसभाओं ने कानूनों में जितने संशोधन किए हैं और नए कानून बनाए हैं, उनकी जाँच की जाए तो पता लगेगा कि ज्यादातर परिवर्तन विदेशी कंपनियों के हित में तथा विदेशी कंपनियों के कहने पर किए गए हैं। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, विश्व व्यापार संगठन, अमरीका सरकार या बहुराष्ट्रीय कंपनियों के कहने पर ये परिवर्तन किए जा रहे हैं. देश की जनता कोई मांग करती है तो सरकार को साँप सूँघ जाता है या या वह लाठी – गोली चलाने में संकोच नहीं करती है. लेकिन विदेशी कंपनियों की मांगें वह एक – एक करके पूरी करती जा रही है.

गौरतलब है कि जिस विदेशी पूँजी को लाने और खुश करने के लिए नीतियों-कानूनों में ये सारे परिवर्तन किए जा रहे हैं और जिस पर ही सरकार की, योजना आयोग की, सारी आशाएं केन्द्रित हैं, वह विदेशी पूंजी अभी भी देश में बहुत मात्रा में नहीं आ रह है. उसकी मात्रा धीरे-धीरी बढ़ी है, लेकिन पिछले पांच वर्षों का भी औसत लें, तो भारत के कुल घरेलू पूंजी निर्माण में उसका हिस्सा ४-५ प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो पाया है. मात्र ४-५ प्रतिशत पूंजी के लिए हम अपनी सारी नीतिय्यँ कानून बदल रहे हैं और देश को विदेशियों के कहने पर चला रहे हैं, क्या यह उचित है? यह सवाल पूछने का समय आ गया है.

उड़न-छू विदेशी पूंजी

सीमित मात्रा में जो विदेशी पूंजी आ रही है, उसका भी कोई विशेष लाभ देश को नहीं मिल रहा है. विदेशी पूंजी निवेश को दो हिस्सों में बाँटा जा सकता है – पोर्टफोलियो निवेश और प्रत्यक्ष निवेश (FDI). विदेशी पूंजी का लगभग आधा हिस्सा पोर्टफोलियो निवेश के रूप में आ रहा है, अर्थात यह हमारे शेयर बाजार में शेयरों की खरीद-फरोख्त करने और Shares की सट्टेबाजी से कमाई करने आती है. अभी जब Sensex दस हजार से ऊपर पहुंचता है, वह इसी का कमाल है. इस प्रकार, यह पूंजी तो सही अर्थों में देश के अन्दर आती ही नहीं है. इससे देश में कोई नया रोजगार नहीं मिलता या नई आर्थिक उत्पादक गतिविधि चालू नहीं होती है. बल्कि, शेयर बाजार में आई यह विदेशी पूंजी बहुत चंचल और अस्थिर होती है. यह कभी भी वापस जा सकती है और पूरी अर्थव्यवस्था को संकट में डाल सकती है. इसे ‘उड़न-छू पूंजी‘ भी कहा जाता है. दक्षिण-पूर्वी एशिया के देशों में कुछ वर्ष पहले जो संकट आया था, उसमें इसी विदेशी पूंजी के भागने तथा अल्पकालीन विदेशी ऋणों के प्रवाह के बंदे हो जाने का बड़ा योगदान था. इस संकट के पहले इंडोनेशिया, थाईलैण्ड, मलेशिया, फिलीप्पीन, दक्षिण कोरिया आदि देश विश्व बैंक की सफलता के प्रिय उदाहरन थे और इन्हें ‘एशियाई शेर ‘ कहा जाने लगा था. लेकिन विदेशी पूंजी के पलायन ने इन शेरों को अचानक गीदड़ों में बदल दिया. दूसरे देशों के अनुभव से भी हमारे शासक सीखते नहीं हैं, यह एक विडंबना है.

विदेशी कंपनियों का हड़पो अभियान

दूसरे प्रकार की विदेशी पूंजी-प्रत्यक्ष विदेशी निवेश- वास्तव में देश के अन्दर आती है. इसे दो भागों में बांटा जा सकता है – (एक) विलय और अधिग्रहण (Merger & Acquisition) तथा (दो) हरित निवेश (Greenfield investment). भारत में प्रत्यक्ष पूंजी निवेश का लगभग आधा हिस्सा तो दूसरी कंपनियों के विलय और अधिग्रहण में लग रहा है अर्थात विदेशी कंपनियां कोई नया कारखाना या नया करोबार शुरु करने के बजाय पहले से चली आ रही देशी कंपनी के कारोबार को खरीद लेती हैं. इससे भी देश में कोई नई उत्पादक गतिविधि नहीं शुरु होती है, रोजगार नहीं बढ़ता है, सिर्फ देश में पहले से चले आ रहे कारोबार के मालिक बदल जाते हैं और उसकी कमाई विदेश जाने लगती है. Parle कंपनी के शीतल पेय व्यवसाय को अमरीका की कोका कोला कंपनी द्वारा खरीदना, टाटा की टोमको कंपनी के साबुन ब्रान्डों तथा साबुन व्यवसाय को हिन्दुस्तान लीवर द्वारा खरीदना, फ्रांसीसी कंपनी लाफ़ार्ज द्वारा सीमेंट के अनेक कारखानों को खरीदना, इसके कुछ उदाहरण हैं. भारत के सरकारी उपक्रमों के शेयर खरीदकर उन पर अपना वर्चस्व कायम करने को भी इस श्रेणी में रखा जाएगा (जैसे मारुति कंपनी पर सुज़ुकी नामक जापानी कंपनी का कब्जा). पूरी दुनिया में बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा विलय और अधिग्रहण की प्रवृत्ति जोरशोर से चल रही है. इससे बाजारों में चन्द बड़ी कंपनियों का एकाधिकारी वर्चस्व कायम हो रहा है. भारत के विभिन्न वस्तुओं के कारोबार में भी विदेशी कंपनियों का कब्जा तेजी से हुआ है. उदारीकरण के इस दौर में विलय, अधिग्रहण अवं एकाधिकार पर पाबन्दियाँ हटाने के बाद यह संभव हुआ है. इसके लिए ‘एकाधिकार एवं प्रतिबन्धित व्यापार पद्धतियाँ अधिनियम (MRTP Act) को बदला गया है. इस प्रकार, विदेशी पूंजी के आने से प्रतिस्पर्धा का भी लाभ देश को नहीं मिला है, जिसका बहुत गुणगान किया जा रहा था. बल्कि कई क्षेत्रों में एकाधिकारी प्रवृत्तियाँ मजबूत हुई हैं.

इस प्रकार जिस हरित निवेश से ही देश में उत्पादन, आय और रोजगार बढ़ने की कुछ उम्मीद की जा सकती है, वह देश में आ रही पूंजी का मात्र एक-चौथाई है. इसके बल पर भारत के शासक कैसे देश के विकास की उम्मीद कर रहे हैं, यह एक हैरानी का विषय है. इसे अंधविश्वास या अंधश्रद्धा ही कहा जा सकता है. महाराष्ट्र के प्रगतिशील समूहों ने अंधश्रद्धा निर्मूलन का काम काफी लगन से किया है. अब उन्हें भूमण्डलीकरण की इन अंधश्रद्धाओं के निर्मूलन का भी बीड़ा उठाना चाहिए.

पूरा देश विदेशी कंपनियों के हवाले

इसी प्रकार, निजीकरण की नीति पर भी भारत सरकार तथा हमारी राज्य सरकारें अंधे की तरह चल रही हैं. यूरोप के कई देशों में जितना निजीकरण नहीं हुआ, उससे ज्यादा ज्यादा निजीकरण भारत में हो चुका है. विदेशी कंपनियों के लिए जिस तरह से दरवाजे खोले गए हैं और पूरी छूट दे दी गई है, उस स्थिति में निजीकरण का मतलब विदेशीकरण ही है अर्थात देर-सबेर विदेशी कंपनियों का वर्चस्व यहाँ कायम हो जाएगा. देश के उद्योग, खेती, खदानें, बैंक, बीमा, शेयर बाजार, बिजली, हवाई अड्डे, सड़कें, होटल, भवन निर्माण, मीडिया, शिक्षा, चिकित्सा, टेलीफोन, कानूनी सेवाएं, आडिट, पानी व्यवसाय – सबको विदेशियों के लिए खोला जा रहा है और उन्हे दावत दी जा रही है एक ईस्ट इण्डिया कंपनी के कारण भारत को २०० वर्षों की गुलामी और बरबादी झेलनी पड़ी थी. अब हजारों विदेशी कंपनियाँ देश में पैर जमा रही हैं, तब देश का भविष्य क्या होगा, इसकी चिन्ता सरकार में किसी को नहीं है. विदेशी कंपनियों को प्रवेश देने का सरकार का सबसे ताजा पैकेज खुदरा व्यापार के क्षेत्र में है. यह एक प्रकार से भारत में बढ़ती बेरोजगारी की स्थिति में अंतिम शरणस्थली है. जब कोई और रोजगार नहीं मिला, तो माँ-बाप बेटे के लिए दुकान खोल देते हैं. लेकिन अब वहाँ भी विदेशी कंपनियों का हमला शुरु हो जाएगा.

जिसे विनिवेश (disinvestment) कहा जा रहा है, उसका भी औचित्य संदेहास्पद है. भारत सरकार हर बजट में सरकारी उद्यमों को बेचने के लक्ष्य रखती है और तेजी से उनको बेचती जा रही है. सरकार का यह काम वैसा ही है, जैसे कोई बिगड़ा हुआ, आवारा, कामचोर बेटा स्वयं कुछ कमाने के बजाय बाप-दादे की कमाइ हुई संपत्ति को बेचता जाए. भारत सरकार ठीक वही कर रही है. इससे बड़ी वित्तीय गैर जिम्मेदारी और क्या हो सकती है, क्योंकि यह संपदा एक न एक दिन तो खतम हो ही जाएगी? विश्व बैंक के निर्देश पर वित्तीय अनुशासन के लिए भारत सरकार ने ‘वित्तीय जिम्मेदारी एवं बजट प्रबंधन अधिनियम‘ तो पारित किया है, लेकिन उसमें इसे वितीय गैर-जिम्मेदारी नहीं माना गया है. उसका मतलब तो सिर्फ गरीबों और आम जनता की भलाई के लिए किए जाने वाले खर्चों में कटौती करते जाना है.

पहले सरकार ने कहा कि जिन सरकारी उपक्रमों में हानि हो रही है, उन्हें बेचा जाएगा. हानि क्यों हो रही है, उसे कैसे दूर किया जा सकता है, यह विचार तथा कोशिश करने की जरूरत सरकार ने नहीं समझी. कई मामलों में तो स्वयं सरकार या उच्च पदस्थ अफसरों के निर्णयों, नीतियों और लापरवाही के कारण ये हानियाँ हुईं और बढ़ीं. लेकिन अब तो हानि की बात एक तरफ रह गयी है. सरकार उन सरकारी उद्यमों को बेच रही है, जो मुनाफे में चल रहे हैं. इसका कारण भी स्पष्ट है - देशी-विदेशी कंपनियां उन उपक्रमों को आखिर क्यों खरीदेंगे, जो घाटे में चल रहे हैं ? इसलिए बजट के लक्ष्यों को पूरा करने के लिए अब लाभ वाले सरकारी उपक्रमों को बेचा जा रहा है. अब तो ‘नवरत्नों’ की बारी भी आ गयी है.

(अफ़लातून)

-----------------------------------------------------------------------------------------------कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.