20120505

सच्चा साथी

बहुधा ऐसा होता है की जब हमारा कोई साथी - सम्बन्धी अपने मार्ग से पतित होता है या भटकता है तो हम उसका साथ छोड़ जाने को उद्यत हो उठते हैं क्योंकि हमारी दृष्टि में उस समय बुरे का साथ छोड़ देना ही उचित जान पड़ता है.

पर यदि आप गहरे से सोचें तो पायेंगे की उस समय ही आपको उस व्यक्ति का साथ अवश्य देना चाहिए.

सच्चा साथी वह है जो साथी को भटकने से बचाए.

------------------------------------------------------ कोई भी मूल्य एवं संस्कृति तब तक जीवित नहीं रह सकती जब तक वह आचरण में नहीं है.

20120504

यह जो आपका अमेरिका है

बहुत कम लोग इसे याद रख पा रहे होंगे कि पिछली 24 जुलाई को भारत में नव उदारवादी अर्थव्यवस्था की शुरूआत के बीस साल पूरे हुए अर्थात भारत में भूमंडलीकरण के बीस साल पूरे हो चुके हैं. 24 जुलाई 1991 को ही अपने बजटीय भाषण में तत्कालीन वित्तमंत्री मनमोहन सिंह ने भारत को भूमंडल के बाजार से जोड़ने का ऐलान किया था. नेहरूवादी समाजवाद की समाधि पर बाजारवादी व्यवस्था के आगाज की जो घोषणा की गयी उसके बीस साल पूरे होने जा रहे हैं. इस मौके पर हमें बहुत कुछ याद करने की जरूरत है. बहुत विस्तार में बात करने की जरूरत है. जिन दिनों भूमंडलीकरण की शुरूआत हुई उन्हीं दिनों उसके विरोध का पहला बिगुल बजाया था डॉ बनवारी लाल शर्मा ने. आज बीस भूमंडलीकरण के पड़ताल की शुरूआत हम उन्हीं डॉ बनवारी लाल शर्मा के आलेख से कर रहे हैं जिन्होंने इसके विरोध का पहला आंदोलन खड़ा किया था. अमेरिका हो जाने की जिद में आगे बढ़ते भारत को डॉ बनवारी लाल शर्मा की नसीहत-

पिछले बीस साल में दुनिया के देश समुदाय में भारत का चेहरा बदल गया है। आजादी के बाद और बीस साल पहले तक भारत का दुनिया में शानदार स्थान था। दो लड़ाकू गुटों- अमरीका और सोबियत संघ से अलग दुनिया के कोई 100 गुट निरपेक्ष देशों का अगुआ देश भारत था और इस नाते उसका बड़ा सम्मान था। दुनिया में जहां भी झगड़े होते थे, भारत की आवाज सुनी जाती थी। अहिंसात्मक आन्दोलन करके आजादी पाने के कारण, गांधीजी के नाम से विकासशील देश भारत की तरफ मार्गदर्शन के लिए देखते थे। अमरीका, यूरोप, रूस, जापान जैसे विकसित देशों की दुनिया को लूटने की चालबाजियों से भारत अन्य गुट निरपेक्ष देशों के साथ मिलकर, उनका नेतृत्व संभालकर टक्कर दिया करता था। गैट के आठवें चक्र- युरुग्वे चक्र में भारत ने 32 विकासशील देशों का समूह बनाकर अमरीका, यूरोप, जापान द्वारा बौद्धिक सम्पदा, पूंजी निवेश, सेवा और खेती जेसे मुद्दों को व्यापार वार्ता में लाने का घोर विरोध किया था और तीन साल तक बात आगे नहीं बढ़ने दी थी।

उसी भारत को आज तीसरी दुनिया के देश हिकारत की नजर से देखते हैं। ऐसा कैसे हुआ? 1989 में सेावियत संघ के विघटन के बाद अमरीका ने भारत को अपने गुट में मिलाने की चाल चली। एक तो, उसे भारत का बड़ा बाजार चाहिए था और दूसरे, उससे टक्कर लेने की तैयारी कर रहे देश चीन के बीच एक ‘बफर जोन’ चाहिए था अमरीका को जो भारत ही हो सकता था। बड़ी चतुराई से अमरीका और यूरोप की मुट्ठी में बंधे विश्व बैंक और मुद्राकोष के भारतीय नौकरशाहों को भारत की राजनीति में घुसाया। डॉ. मनमोहन सिंह से यह कवायद शुरू हुई। 1992 में केन्द्र सरकार में वित्तमंत्री बनकर विश्व बैंक के नौकर डॉ. मनमोहन सिंह ने भारतीय अर्थव्यवस्था को (और आगे चलकर राजनीति को भी) अमरीका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के लिए खोल दिया। उन्होंने छोड़ दिया गान्धी का स्वावलम्बन का रास्ता, छोड़ दिया गुट निरपेक्ष देश का नेतृत्व और डाल दिया भारत को अमरीकी गुट में। आज भारत गुट निरपेक्ष देश नहीं है, वह बाकायदा अमरीकी गुट का सदस्य है। कृषि, सेवा, शिक्षा, उद्योग ही नहीं, सुरक्षा के क्षेत्र में अमरीकी दखलंदाजी बढ़ रही है।
जरा हम देखें कि वह कैसा अमरीका है जिसका पिछलग्गू बनने में इस देश की सरकार, उद्यमी और कुछ बुद्धिजीवी पगला गये हैं। डॉ. मनमोहन सिंह ने केवल एक बार प्रधानमंत्री पद से इस्तीफा देने की बात कही है। वह कब? कहा- ‘अगर अमरीका के साथ परमाणु सौदा संसद से पास न होता तो मैं त्याग पत्र दे देता’। वफादारी की इससे बड़ी मिसाल क्या हो सकती है?

इस अमरीका की कुछ खास बातें ये हैं:
1. अमरीका दुनिया में दादागीरी करने वाला पहला देश है: वियतनाम से फ्रांसीसियों के बाहर निकलने के बाद वहां घुस गया, अपनी फौजें बिछा दी। बहाना बनाया, इस देश को कम्युनिस्टों से बचाना है। 7-8 साल में उस छोटे से देश को इस ‘महान’ देश ने ध्वस्त कर दिया और फिर मुँह की खाकर, पूँछ दबाकर बाहर भागना पड़ा। वही कुकर्म इसने अफगानिस्तान में किया है। 26/11 की घटना के लिए ओसामा को जिम्मेदार ठहराकर उसे खोजने निकल पड़ा अफगानिस्तान में। 10 साल में उस छोटे देश का, जो उससे पहले 24 साल तक अमरीका और सोवियत संघ की कुश्ती का मैदान बना रहा था, तबाह कर दिया। ओसामा अफगानिस्तान में नहीं, अमरीका के दोस्त देश पाकिस्तान में मिला। वियतनाम की तरह अफगानिस्तान में भी मुँह की खाकर ओबामा कुछ अमरीकी फौजें वहां से हटा रहा है। क्या किया उसने 10 साल में? अपने 1551 सैनिक मरवाये, 443 अरब डॉलर फूँके, हजारों बेकसूर अफगानियों को मारा और झक मारकर तालिबानियों से बातचीत करने की पहल की जा रही है। अन्तरराष्ट्रीय मामलों में अमरीका का व्यवहार एक शराबी गुण्डे की तरह रहा है।

2. दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश: भारत में ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो अमरीका को स्वर्ग मानते हैं, वहां अपने बेटे-बेटियों को पढ़ाने, नौकरी कराने और बुढ़ापे में वहीं आखिरी वक्त काटने का मौका मिलने से जीवन को धन्य मानते हैं। यह देश दुनिया का सबसे बड़ा कर्जदार देश है। ताजे आँकड़ों के अनुसार अमरीका पर उसके जीडीपी का 99.5 फीसदी कर्ज लदा है।

3. टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट की पोल खुल गयी: कहा जाता है कि अमरीका टेक्नोलॉजी और मैनेजमेंट में दुनिया का गुरू है। 1997 में जो मन्दी आयी, उससे पोल खुल गयी। लेहमन ब्रदर्स जैसी बैंकें और जनरल मोटर्स जैसे उद्योग घराने दिवालिया हो गये। 300 से ज्यादा बैंकों पर ताले पड़ गये हैं, अरबों रुपया आमजन का डूब गया है, बेरोजगारी पर काबू पाना मुश्किल हो रहा है। निजी कंपनियों और बैंकों की वकालत करने वाले देश की सरकार ने अरबों डॉलर इन निजी संस्थानों को बचाने के लिए लोगों के धन से से दिये।

4. दुनिया का सबसे बड़ा झूठा देश: लिखित रूप से हस्ताक्षर किये गये समझौतों को तोड़ने में अमरीका का कोई सानी नहीं। अनेक उदाहरण हैं, यहां केवल दो का उल्लेख पर्याप्त है। पृथ्वी और उसके पर्यावरण को बचाने के लिए 1992 में रियो सम्मेलन हुआ। उसमें कार्बन डाईआक्साइड गैस कम करने के लिए एक समिति बनी जिसने 5 साल मेहनत करके क्योटो प्रोटोकॉल बनाया जिसमें अमरीका अपने देश में 7 फीसदी कार्बनडाई आक्साइड का सृजन कम करने के लिए राजी हुआ। अमरीकी प्रतिनिधि ने क्योटो प्रोटोकॉल पर बाकायदा दस्तखत किये। पर यह देश मुकर गया। बोला, नहीं करते हैं कम। दूसरा उदाहरण, डब्लूटीओ में तय हुआ कि विकसित देश अपने किसानों को दी जाने वाली सब्सिडी कम करेंगे। अमरीका ने ठीक उल्टा किया। वह किसानों को भारी सब्सिडी दे रहा है, नतीजन, तीसरी दुनिया के देश कृषि के अन्तररष्ट्रीय बाजार में टिक नहीं पा रहे। 10 साल से डब्लूटीओ को दोहा चक्र चल रहा है। विकासशील देश कह रहे हैं- भाईजान, खेती की सब्सिडी क्यों नहीं कम करते हो! जवाब मिलता है- पहले हमारे गैर कृषि- यानी उद्योग-सेवा के लिए अपना बाजार खोल दो तब सोचेंगे।

5. दुनिया का सबसे बड़ा नैतिक पतन वाला देश: 1996 में अमरीका में एक आयोग का गठन हुआ, नैतिक पतन के कारण और उनका निदान खोजने के लिए। कहा गया- अमरीका दुनिया में चोटी पर है- सेक्स और हिंसा में, तलाक दर में, सिंगल पेरेंट परिवार में, अश्लील साहित्य के उत्पादन और उपभोग में, यह सूची लम्बी है।

सवाल यह है कि भारत की सरकार ऐसे घटिया देश के गुट में क्यों शामिल हो रही है? क्या उसकी दादागीरी से डर गयी है? इसका जवाब इस देश के लोग देंगे। अमरीका (और उसके गुट के अन्य देशों) की बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को देश के बाहर खदेड़ देंगे, एक भी परमाणु प्लांट नहीं लगने देंगे तथा अन्य अमरीकी  अड्डों को समाप्त करेंगे।

(डॉ बनवारी लाल शर्मा)
(डॉ बनवारी लाल शर्मा ऐसे शुरूआती लोगों में हैं जिन्होंने आजादी भूमंडलीकरण का विरोध शुरू किया और आजादी बचाओ आंदोलन की स्थापना की. इन दिनों पीपुल्स न्यूज नेटवर्क का संचालन करते हैं)


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20120502

पीले सोने का काला सच

हमारे देश में चमत्कार होना आम बात है लेकिन चमत्कार कि हकीक़त से भी सभी लोग वाक़िफ़ हैं। पीले सोने में गजब की आकर्षण क्षमता होती है,लेकिन चमत्कार की क्षमता नहीं। फिर यह चमत्कार कैसे हो रहा है की सोना दिन दुगनी और रात चौगुनी की तेज रफ्तार से बढ रहा है वह भी तब जब की मंदी का दौर है। यह सब खेल है पीले सोने के सहारे ब्लैक को व्हाइट करने का।

बात थोड़ी अजीब है लेकिन सोलह आने सच है। इस बात को समझने के लिए सोने के विषय में कानूनी स्थिति पर जरा नजर डालिए। भारत में शादीशुदा महीला 500ग्राम तक सोने रख सकती है और भारत सरकार का आयकर विभाग इतना सोने के विषय में पुछ ताछ नहीं करता क्योंकि ऐसा माना जाता है की भारतीय महिला चाहे वह कितनी भी गरीब क्यों न हो उसके पास सोना रहता है। और अगर इससे ज्यादा रखते हैं तब भी आयकर विभाग के  पुछ ताछ से बचा जा सकता है यह कहकर की यह गिफ्ट में मिला है बस आपको चन्द रुपए खर्च करके गिफ्ट सर्टिफिकेट बनवाना होगा जो आसानी से बन जाता है। हिंदु अविभाजित परिवार के पास उपलब्ध सोने की ज्वैलरी के विषय में भी आयकर विभाग नहीं पूछता क्योंकि सोने की ज्वैलरी पैतृक संपति के रुप में स्त्रीधन माना जाता है।

भारत में पीले सोने की खपत
दुनियाँ में भारत 10वें स्थान पर पीले सोने के स्वामित्व के आधार पर है। भारत में सबसे ज्यादा सोने की खपत दक्षिण भारत में है जो देश के पूरे  खपत का 40 प्रतिश्त है। औसतन देशभर में लगभग 500 से 750 टन सोने की खपत है। बिल क्रूड आयल के बाद देश में सबसे ज्यादा आयात सोने का ही होता है,ऐसोचैम के अनुसार 2015 में यह 100अरब के पार पहुँच जाएगा।

बेहद फायदे का कारोबार
सोने का कारोबार बेहद फायदे का कारोबार है इस कारोबार में रिस्क कम और फायदा बैंक एफ डी से भी ज्यादा होता है। सोने से किस प्रकार का चमत्कारी फायदा हो सकता है इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि महज 24 घंटे में में 10 ग्राम सोना आपको 1310 रुपए का फायदा दे सकता है जी हां यह कोई दास्तां नही बल्कि हकीक़त है। 18 अगस्त 2011 को 10 ग्राम सोने की कीमत 26,840 रुपए थी और 24 घंटे बाद 19 अगस्त 2011 को 10 ग्राम सोने की कीमत हो गई 28,150 रुपए यानी 24 घंटे में 1310 रुपए का बचत। यह है पीले सोने का करिश्मा।

कैसे होता है काले धन को सफेद करने का खेल
गोल्ड लोन के जरिए- काले धन से पहले लोग कैश से सोने की ज्वैलरी की खरीदारी करते है क्योंकि कैश से सोना खरीदने में कोई टेक्स नहीं लगता और सोना बेचने वाले के लिए यह भी जरुरी नहीं के पैसा कैसा है। बाद में सरकारी व अर्धसरकारी बैंक से गोल्ड के अगेन्सट लोन ले लेते है। हो गया न ब्लैक से व्हाइट मनी क्योंकि लोन का पैसा तो बैंक के जरिए मिला है। इस तरह से बड़े आसानी से हो जाता है ब्लैक से व्हाइट मनी वो भी बिना टैक्स के। यही कारण है की गोल्ड लोन का कारोबार बड़ी तेजी से बढ रहा है। गोल्ड लोन कि जिस तरह से मार्केटींग हो रही है काफी हद तक इस बात की पुष्टि भी करता है कि यह खेल अब कितना व्यापक पैमाने पर हो रहा है।

सोने की खरीद और अर्थव्यवस्था
भारत में सोने की खरीदारी पर पाबंदी नहीं है लेकिन आर्थिक सर्वे में यह सुझाव दिया गया है कि यदि भारतीय सोने की खरीदारी कम करेंगें तो देश के अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा होगा। पहला कारण भारत में लोग सोने की होल्डिंग की जानकारी सरकार को नहीं देते हैं जिससे खरीदारी तो होता है लेकिन सरकार को वेल्थ टेक्स नहीं मिलता क्योंकि 30 लाख रुपए से ज्यादा पर 1प्रतिश्त वैल्थ टेक्स बनता है और कालाबाजारी को बढावा मिलता है। दुसरा कारण यदि खरीदारी जारी रही तो सरकार को आयात बढाना पड़ेगा और आयात बढा तो अर्थव्यवस्था कमजोर होगा।

पीले सोने की चमक यकीनन आकर्षक है और सोने से मिलने वाला लाभ चमत्कारी लेकिन कालाबाजारी और काले को सफेद करने का खेल देश के लिए और देशवासियों के लिए गुणकारी नहीं।
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20120501

वे कहां खो गये जो कलेक्टर नहीं थे

कलेक्टर एलेक्स पॉल मेनन के लिए दुआएं की जा रही हैं. मानवाधिकार कार्यकर्ता और सामाजिक कार्यकर्ता उन्हें निःशर्त रिहा किए जाने की मांग कर रहे हैं. कलेक्टर के दोस्त उनसे जुड़ी पुरानी यादें सुना रहे हैं. मुख्यमंत्री ‘बेहद चिंतित’ हैं और गृहमंत्री लगातार बढ़ रही ऐसी घटनाओं से ‘परेशान’ हैं. अखबारों के सम्पादक और पत्रकारों के शब्द उलझन भरे ज़ेहन से निकले हुए लगते हैं. प्रधानमंत्री के ६ साल पहले रटे-रटाए वाक्य को दुहराना वाजिब नहीं; पर यह देश की जो आंतरिक असुरक्षा है वह लगातार बढ़ती जा रही है और अब देश और आंतरिक सुरक्षा के मायने दोनों समझ से परे हो गए हैं.

आखिर एक कलेक्टर जो ‘सुराज’ लाना चाहता है, उसे बंधक बनाया जाना कितना उचित है के जवाब में; एक बूढ़ा कलेक्टर जिसने सरकार की नीतियों से तंग आकर वर्षों पहले कलेक्टरी से इस्तीफा दे दिया है, कहता है- ‘युद्ध में सही और गलत को नहीं आंका जा सकता’. तो क्या सुराज=युद्ध? किसी डिक्सनरी के पन्नों में ऐसे मायने नहीं जोड़े गए हैं. पिछले दो-तीन दशकों में छत्तीसगढ़ के इतिहास में ऐसे कई शब्द हैं जिनके अर्थ खोजना व्यर्थ है; पर जिनका जिक्र करना यहां बेहद जरूरी. कि अखबारों में कलेक्टर की रिहाई के लिए उलझन भरे, दुखी और चिंतित लोगों के शब्द जो काले अक्षरों में छप रहे हैं, वह बेहद स्याह पक्ष है, ‘सभ्य’ और अभिजात्यों का पक्ष.

यह अखबारों और किताबों के पन्ने से अलग एक पन्ना हैं ‘पन्ना लाल’ जो छत्तीसगढ़ (छत्तीसगढ़ तब मध्यप्रदेश का हिस्सा था) में उस इलाके के पूर्व डी.आई.जी रह चुके हैं, जिन इलाकों में ये घटनाएं घटित हो रही हैं. १९९२ में जब ‘जन जागरण’ अभियान इन क्षेत्रों में चलाया गया. मकसद था नक्सलियों की सत्ता को खत्म ‘करना’. उसी वर्ष गृह राज्यमंत्री गौरीशंकर शेजवार ने कुछ दिनों बाद नक्सलियों के ‘खात्मे’ की घोषणा कर दी. अयोध्यानाथ पाठक और दिनेश जुगरान महानिरीक्षक के तौर पर नियुक्त किए गए थे. जन-जागरण के इस अभियान में ‘जन-प्रताड़ना’ के आंकड़े जुटाना मुश्किल है. पर करीगुंडम, एलमागुडा, पालोड़ी, पोटऊ पाली, दुगमरका, सल्लातोंग, टुडनमरका, साकलेयर गावों के लोगों की यादों में आंकड़े नहीं, वृतांत और कहानियां पड़ी हुई हैं. सोड़ी गंगा जो दूसरी कक्षा तक पढ़े हैं और एक गांव के अध्यापक हैं उनके पास जन-जागरण की प्रताड़ना के कई किस्से हैं. तो क्या जन-जागरण अर्थ होता है प्रताड़ना?

शायद शब्दकोष के मायने समाज की अर्थवत्ता से अलग है. यह अभियान कुछ वर्षों तक चलता रहा और पुलिस माओवादियों की वर्दी पहनकर घूमती रही...घूमती रही कि माओवादियों जितनी स्वीकार्यता पुलिस को भी मिल जाए. गांवों में नक्सली बनकर पुलिस जाती और गांव वालों के साथ जमीन पर बैठती, उनसे बातचीत करती. पर यह हकीकत के एक हिस्से का नाट्यरूपांतरण था. माओवादियों ने आदिवासियों के लिए तेंदू पत्ते के कीमत की लड़ाई, जंगल में हक की लड़ाई और १५,००० एकड़ जमीन के बंट्वारे तालाबों के निर्माण जैसे कई काम करवाए थे. तब छत्तीसगढ़ मध्यप्रदेश था. यह समय था जब पुराने आरोप ध्वस्त हो रहे थे और नक्सली आंध्र के इलाकों से नहीं आते थे. बल्कि आदिवासी माओवादी हो रहे थे और माओवादी आदिवासी. जिसे मछली और पानी का संबंध कहा गया.

सलवा-जुडुम यानि ‘शांति अभियान’ ‘सुराज’ के ठीक पहले का अभियान है. पिछले सात वर्षों में चलाए गए इस ‘शांति-अभियान’ के सरकारी आंकड़े ६४४ गांवों के उजाड़े जाने के हैं. लगभग ३.५ लाख लोगों के विस्थापन के. घरों के जालाए जाने, लोगों के पीटे जाने, पेड़ों पर टांग के गोली मार देने और महिलाओं के बलात्कार के आंकड़े…..पिछले बरस माड़वी जोगी अपने साथ हुए दुर्व्यवहार को बताते-बताते वापस घर में चली गई और हमने सैन्य बलों के उत्पात के बारे में सवाल पूछना ज्यादती समझा. माड़वी लेके नाम की एक महिला को उनके पिता और भाई माड़वी जोगा और माड़वी भीमा के सामने पुलिस ने नग्न किया और पुलिस स्टेशन से घर तक जाने को कहा…..खबर लगी है कि कलेक्टर को कुछ कपड़े और दवाईयां पहुंचाई जा चुकी हैं और उसके साथ कुछ खाने-पीने की चीजें भी.

आंकड़ों में १६ मार्च २०११ को ताड़मेटला में ७ साल के एक बच्चे को सैन्य बलों ने पीटा, यह दर्ज नहीं है, हवाई फायरिंग सुनकर गांव के कितने लोग भागे, यह भी दर्ज नहीं है. कुछ गैर सरकारी दस्तावेजों और पत्रिका की रिपोर्टों में २०७ घरों का जलाया जाना दर्ज है. आंकड़ो में घटित हुई इन घटनाओं ने हर आदमी को क्रोधित किया, आंकड़े में हर आदमी गुस्से में है, आंकड़े में उसकी उग्रता स्वाभाविक है और इस संगठित उग्रता में हर आदमी उग्रवादी है. देश और सरकार के दस्तावेजों में इंसानी स्वभावों के आंकड़े नहीं दर्ज किए जाते. तो क्या ‘शांति अभियान’=तबाही. डिक्शनरी देख सकते हैं. राज्य सरकार ‘शांति-अभियान’ चलाती है और देश की सर्वोच्च न्यायालय एक फैसले में उसे तत्काल बंद करने का आदेश देती है. राज्य शान्ति चाहता है? न्यायालय शांति नहीं चाहता? शांति और न्याय एक दूसरे के विरुद्ध कैसे हैं? ऐसे ढेरों सवाल.

कलेक्टर मेनन का स्वास्थ्य ठीक नहीं है और माओवादी उनकी दवा को लेकर चिंता जाहिर कर रहे हैं और उन्हें दवाईयां सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों द्वारा दूसरे दिन भी भेज दी गई हैं. अब कलेक्टर को अगवा किए हफ्ता बीत चुका है. ६ बरस पहले २००६ से सैन्य बलों द्वारा गायब की गई २ लड़कियों का अभी तक कोई पता नहीं चला है जिनका नाम मडकम हूँगी और वेको बजारे है. ‘शान्ति-अभियान’ की तबाही में ऐसे कई लोग गायब हुए जिनका पता नहीं चला, पिछले बरस देवा बता रहे थे कि करीगुंडम में नाले के पास दो लाशें मिली थी और कई ऐसी लाशें हैं जो किसी नाले के किनारे नहीं मिली.

आदिवासियों पर हुए अनगिनत जुल्म के विरुद्ध क्या माओवादियों के इस 'लोकतांत्रिक कार्यवाही' की सराहना की जानी चाहिए? मसलन राजनैतिक कैदी के तौर पर कलेक्टर को सुविधाएं मुहैया कराना, अगवा की जिम्मेदारी लेना और बातचीत के जरिए ६ दिनों में हल करने का प्रयास करना. और ६ वर्षों में सरकार द्वारा ….. क्या सैन्यबलों द्वारा गायब किए गए, हत्या किए गए या जाने क्या किए गए की निंदा नहीं करनी चहिए? कि वे जो गायब हुए हैं वे कलेक्टर नहीं थे आदिवासी थे बस?
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